(बारह)
आकाशवाणी का रिकॉर्डिंग कक्ष, ताहिरा के निर्देशन में काव्य नाटिका ’बे टिकट सफर’ का प्रसारण, जिसमें केबल दो पात्र टी टी और नवयुवक । नवयुवक की भूमिका में झींगन राम यानी झींगना और टी टी की भूमिका में स्वयं मित्तल साहब । जाड़े का मौसम और पसीने से तर - बतर झींगना को देखकर मित्तल साहब से रहा नहीं गधा, तेज धुड़कते हुए कहा -“झींगना, अगर मे हाल रहा तो मुझे कैंसिल करनी पड़ेगी रिकॉर्डिग -- ।”
“नहीं सर ! रिकार्डिगं कैंसिल मत कीजिए, हमारे कैरियर का सवाल हए -- ।”
“तो फिर ये घबराहट का चोला निकाल कर फेंकना होगा -- ।”
“ये लीजिए सर ! फेक दिया -- ।” इतना कहकर झीगना जोर का ठहाका लगाया, और सुस्कुराते हुए कहा -
“सर ! अब हम तैयार हएं रिकॉर्डिगं के लिए --- ।”
यह दृश्य देखकर अचम्भित रह गयी ताहिरा, थोड़ी देर के लिए तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ, कि झींगना ने कैसे मन के भीतर के डर को फुर्र कर दिया ? झींगना के भीतर की इस प्रतिभा पर वह खुश हुई, और झींगना को उसकी भूमिका के बारे में तथा संवाद के बारे में क्रमवार बताना शुरू किया । झींगना सिर हिला - हिलाकर भूमिका की बारिकियों को समझने लगा तथा संवाद याद करने मेें मशगूल हो गया । ताहिरा ने कलाकारों को काव्य नाटिका के लिए तैयार करने के बाद कहा -’रेड्ी एवरी बॉडी, स्टार्ट !’ और हर कोई अपनी - अपनी भूमिका के लिए तैयार । ताहिरा ने अपने उद्बोधन में कहा -
”एक दिन एक नौजवान
बेटिकट सफर करता हुआ पकड़ा गया
पुलिस की हथकड़ियोें में बह -
बावजह जकड़ा गया -- और आगे क्या हुआ -- चलिए देखते हैं इस काव्य नाटिका बेटिकट सफर में ।”
मजिस्ट्रेट ने पूछा - “क्यों बेटिकट चलते हो ?
इतना बड़ा संगीन अपराध क्यों करते हो ?”
नौजवान बोला - ”हमारे लिए यह एक सिद्धान्त / एक दर्शन है जीवन सफल बनाने का एक प्रशिक्षण है -- ।
जब खुदा ने बख्शी है यह उमर बेटिकट,
तब क्यों न करें हम रेल में सफर बेटिकट ?”
सुनकर वक्तव्य उसका मजिस्ट्रेट झल्लाया, सिद्धान्त दर्शन की बातें सुन भावावेश में आया, फरमाया -
“रे मूर्ख ! कैसी बहकी-बहकी बातें करता है / बेटिकट सफर को सिद्धान्त - दर्शन कहता है ?
यह दर्शन और यह सिद्धान्त अरे !
महज तेरी मूर्खता है / यह दृष्टांत है बस भ्रम - मात्र तेरी क्षुद्र मानसिकता है -- नहीं जानते परिणति इसकी / है तू शिशु अभी नादान । सिद्धान्त और दर्शन का तुझे नहीं पहचान/ जहॉ तक प्रश्न है -
सिद्धान्त दर्शन का दर्शनिष्ठ विश्वास के अतिरेक प्रदर्शन का -- आओ अरे जरा पास आओ, मैं बताता हूं तुझे दर्शन और सिद्धान्त / स्वानुभूति मे पचने वाला आपना एक दृष्टांत -- । तो सुनो -
दर्शन जीवन का एक अंश है / सिद्धान्त उसका बोध - - ।
दर्शन में अश्रुत तटस्थता को श्रेय प्राप्त है / सिद्धान्त में वैविध्यपूर्ण मुनष्य जीवन का मार्मिक स्पंदन --- ।
दर्शन में यथासम्भव राग से एक चिन्तन व्याप्त है / सिद्धान्त में उसके लीक पर चलने का अनुकरण -- ।
जो जीवन का जितना, वैविध्यपूर्ण अनुभव पाया है । दर्शन को उतनी ही सूक्ष्मता से माप पाया है -- ।
अतः स्पष्ट है, यह सत्य है, कि -
दर्शन ज्ञात से अज्ञात की ओर
कल्पनात्मक अभियान की वृति है /और सिद्धान्त श्वानुभूत सत्य को उद्धाटित करने की प्रवृति है -- ।
संविधान में वर्णित सजा का
तुझको ज्ञान नही है / पुलिस की ताकत का तुझे
अनुमान नही है -- कभी भी वेटिकट सफर का होता
परिणाम न अच्छा / नही समझते इसको आखिर हो बच्चा -- ।
यह कानूनन जुर्म, एक अपराध है /जिसकी अशुभ परिणति होती है, तुम्हें नहीं याद है -- ?
सरकार की सम्पति को
अपनी सम्पति समझकर / चल दिए हो बेटिकट
पूरी तरह अकड़कर -- ।
जब जेल जाओगे, जेल की मोटी रोटी खाओगे, पछताओगे,
सिद्धान्त - दर्शन सब स्वयं भूल जाओगे -- ।”
“नही महाशय !
अक्सर डरते हैं, वही मनुष्य जेल जाने से / जो कतराते हैं
सदैव सत्यता से आंख मिलाने से -- जिसमें साहस, विवेक और आत्मबल व्याप्त होता है / उसी को बेटिकट सफर का सौभाग्य प्राप्त होता है -- ।”
इतना कहकर नौजवान मुस्कुराया, जेल की अहमियत से, उन्हें अवगत कराया, बोला -
“जेल जाना तो, तीर्थाटन करने के समान है / जेल जाने वाला पत्येक व्यक्ति महान है, परम सौभाग्यवान है -- । क्योंकि - जेल ने ही राष्ट्रपिता गांधी को महात्मा बनाया / कृष्ण को पैदाकर परमात्मा बनाया -- । चिंतक हुए जवाहर लाल, जेल जाने के पश्चात् / नही थे वे राजनेता, अथवा चिंतक जन्मजात --।
जेल जाने के बाद सबने
सुभाष - भगत को जाना / रवीन्द्र नाथ टैगोर का भी
दुनिया ने लोहा माना --
फिर कुछ सोचते हुए नौजवान ने कहा -
“महाशय जी !
आप बाखुबी जानतें हैं, कि -
एक - बार जब सत्ता में थी काँग्रेस ’आई’
तब विक्षुब्ध विपक्षी नेता ने अपना आक्र्रोश दिखाया -- ।
तरह-तरह की अटकलें, तीब्र अफवाहों का दौर चला / कुछ कॉग्रेसी सांसद भी अपनी पार्टी को छोड़ चला -- ।
बात बिगरते देख इंदिरा, जब -
देश में इमरजेंसी लगबाई / रासुका के तहत विरोधियों को जेल की हवा खिलाई, तब -
लोकनायक बनकर उभरे जय प्रकाश / चन्द्रशेखर आदि
नेताओं का महिमण्डन हुआ अनायास -- ।
इस प्रकार -
अनेक लोग जेल जाने के बाद पूज्य हुए, महान हुए / चिंतक,
कवि, नेता, दार्शनिक और भगवान हुए -- ।”
नौजवान की बातें सुन मजिस्ट्रेट कुछ सम्भला, खामोशी की दीवार तोड़ अक्स्मात् मचला, बोला -
“कैसे बेटिकट सफर
एक सिद्धान्त / एक दर्शन है -- विस्तार से बताओ, कैसे -
जीवन सफल बनाने का प्रशिक्षण है -- ?”
नौजवान बोला - “हे महाशय ! आक्रस्मिकता से जुड़ी
अनिश्चिता ही प्रकृत जीवन है, और -
प्रकृत जीवन का रिहर्सल ही
बेटिकट सफर का दर्शन है -- दर्शन का तात्पर्य
सत्य का साक्षात् अनुभव / वास्तविक एवं मिध्या में
विभेद यथासंभव, और इस प्रकार -
दर्शन कहते है, युक्तिपूर्वक तत्व ज्ञान पाप्त करने के प्रयत्न को, सूक्ष्मता से किए गये तत्व चिन्तन को -- यथार्थ के सूक्ष्म अध्ययन को -- मिथ्या के विष मंथन को -- सत्य के अनुसंधान को -- मनुष्य के आत्म साक्षात्कार को -- एक ऊंचे उद्धेश्य को --
मन के मंथन को -- ।
जरा सोचिए ! टिकट के साथ सफर क्या
यथास्थिति से गठजोड़ कर
आगे बढ़ने का न्यौता नहीं ?
जब सरकार ही यथास्थिति का सम्पोषण करे,
जनता की सुख - सुविधाओं का शोषण करे,
क्रांति से बनी सरकार क्रांति को ही अवैध समझे,
सरकारी कोष को परमेश्वर का नैवेद्य समझे, और फिर -
ऐलान करे - टिकट लेकर सफर करें यात्री गण / ये कहां का
न्याय है, क्या यही है जनता के साथ सरकार का अपनापन -- ?
जब सरकार की सम्पत्ति अपनी सम्पत्ति होती है / तब क्यों
बेटिकट सफर की अशुभ परिणति होती है -- ?
इसलिए महाशय !
जहां तक मेरा दृष्टिकोण है -
बेटिकट सफर से आन, बान, शान, और -
मिलता सदैव सम्मान ---
कभी बर्थ पर बैठकर उंधने का स्वांग रचाये / कभी प्लेट फार्म पर उन्मुक्त टहलते नजर आये -- शालीनता की मूर्ति, कभी उददंड हो चले / कभी चलते - टहलते गति मंद हो चले -- फिर भी यदि पुलिस का हो ही जाये सामना / तो सरकारी ससुराल का सैर कर लें महामना -- कितना मजा है जो सदा चलते हैं बेटिकट, भटकते रहते हैं शहर - दर - शहर बेटिकट -- ।
इस प्रकार, बेटिकट सफर का दर्शन है -
समाज में धंुधुआती हुई नई चेतना को
अभिव्यक्ति प्रदान करना / प्रकृत जीवन के अनुरूप
स्वच्छन्द जीवन विताने की परिकल्पना -- ।
आदरणीय महोदय, मेरा ध्येय हैे -
एक क्रांति की प्रस्तावना का / क्योंकि हमें अभास होने लगा है
अब, भविष्य के एक -
क्रान्तिकारी परिवर्तन की सम्भावना का -- ।
चौंकिए मत-इतिहास रूकता नहीं, वह स्वयं बदलता जाता है/ अनायास ही मनुष्य की जिज्ञासाओं में अमूल परिवर्तन आ जाता है -।
वैसे, आवश्यकता नहीं क्रांति को प्रमाण - पत्र की / वह तो रीढ़ है
लोकतंत्र की -- । बेटिकट सफर का दर्शन है, बिना जरूरत आते
रहिए, जाते रहिए / नैतिकता का स्तर ऊंचा उठाते रहिए -- क्योंकि इसमें उन्मुक्त स्वच्छंदता की चिर चंचल चेतना है /महापुरूष बनने की प्रबल संभावना है -- क्योंकि बेटिकट सफर - मनुष्य को लचीला बनाता है / जीवन में सफलता का मार्ग दिखाता है -- ।
“ये तो रहा दर्शन, अब जरा -
सिद्धान्त पर दृष्टिपात करें / हर पहलुओं को उकेरकर
उद्वेलित मन शांत करें -- ।
क्या सच में -
बेटिकट सफर दंड़्य है ? अपद्वर्म है ? दयनीय है ? कुकृव्य है ?
कुकर्म या दुष्कर्म है ?
किसी का बेटा बीमार हो, देखने चले पैसे न हो / उसकी औकात किसी सेठ - साहुकारों के जैसे न हो -- बेरोजगार हो कोई निकले कहीं रोजगार की तलाश में / दो जुन की रोटी भी मयस्स न हो, यदि पैसे न हो पास में -- । वह बेटिकट चले, तो दंड्य है, घोर अपराध है -- और कुछ लोग -
बेटिकट सफर के लिए पूर्णत: आजाद है -- ।
जी हां ! पूर्णतः आजाद है राजनेता / सिपाही / अपराधी साधु और महात्मा -- जी हां, यह सत्य है, जिसे जब -
सुनेंगे आप, हिल जाएगी आपकी आत्मा-- ।
राजनेता को आबंटन प्राप्त है -
अपराधियों से मिलकर आतंकवाद फैलाने का / बेटिकट चुनाव लड़ने या लड़ाने का / रेल हो या हवाई यात्रा / मिली है उन्हें बेटिकट चलने की पात्रता --।
पुलिस तो दो कदम आगे है नेता से / मिलने जाए परिणीता से या प्रणेता से / शरीर पर वर्दी होनी चाहिए, बस उनके लिए बेटिकट सफर एक सामान्य बात है / सिपाहियों को अस्पष्ट रूप से और भी कई अबंटन प्राप्त है -- ।
कहा जाता है, कि -
कप्तान डरता है तूफान से / भक्त डरता है भगवान से
और भगवान डरते हैं शैतान से, अतएव -
अपराधियों के लिए सारे दखाजे खुले हुए हैं / उन्हें तो
सरकार से और भी कई प्रमाण - पत्र मिले हुए है, क्योंकि -
एक तरफ वे जनता को -
डरा - धमकाकर / सर्वत्र आतंक फैलाकर
न्ेाताओं के हक में बेटिकट माहौल बनाते हैं / इसलिए हे मान्यवर ! ये सांसद कोटे से -
वतनुकूलित कक्ष में सोकर जाते हैं -- ।
इस प्रकार, यदि चिंतन करें तो पाएंगे
कई दृष्टिकोण से यह सफर पूज्य है/ संगत है / श्रेयस्कर है,
बेटिकट सफर से विचलित होना अनिष्टकर है -- ।
जहां तक मेरा प्रश्न है -
मैं नौजवान हूं / मेरा संकल्प प्रवल है ,
बेरोजगारी के दौर में यह एक नई पहल है -- ।”
रामांचित हो रहा था वह मजिस्ट्रेट नौजवान की साफगोई को सुनकर, नौजवान बोलते - बोलते ले लिया था अल्प विराम, फिर वह बोला -
“हे महाशय !
आज्ञा हो तो एक रोचक वृतांत सुनाऊं ?
कुछ कड़वे सत्य से परिचय कराऊं ?”
मजिस्ट्रेट ने सिर हिलाकर अपनी सहमति दी / आगे सुनाईए यह कहकर अनुमति दी । नौजवान ने कहा -
“एक दिन, खददर का कुर्ता पहन
नेताजी कहीं जा रहे थे । कॉनफ्रैंस के नाम पर
बेटिकट होने का स्वांग रचा रहे थे / मैं उसी कम्पार्टमेण्ट में बैठा सारा दृश्य देखता रहा / सूक्ष्मता से देश के भविष्य का नव्ज टटोलता रहा, कि जब देश का कर्णधार ही बेटिकट सफर करे / कभी दिल्ली तो कभी बुलंद शहर करे तो, फिर जनता से -
टिकट की अपेक्षा क्यों ?
पाप - पूण्य, धर्म - अधर्म,
न्याय - अन्याय की शिक्षा क्यों ?
यह सोचकर शर्म से मैं नतमस्तक हुआ,
कि अचानक टी टी का दरवाजे पर दस्तक हुआ,
वह उस नेता से मुखातिब हुआ / बेटिकट सफर से बाकिफ हुआ - -
टी टी महोदय सकपकाये / पकड़े इन्हें या अपनी -
नौकरी को बचायें ?
किसी दिन, ये नेता जी -
मंत्री बन जाएंगे । मुझे भी विभाग में बेटिकट प्रोन्नति दिलाएंगे ..............।
यह रव्वाब संजोकर, उसने -
उसे एक बर्थ दिलवाया / जनता को उठाकर प्रतिनिधि को बैठाया.......।
सोचता हूं, कि कैसे ये सारा
माहौल बदल पाएगा / चलते - चलते न जाने यह देश कहां तक जाएगा ......।
ऐसे नेता वृहद देश को नेतृत्व भला क्या देंगे / स्वयं डूबेंगे और साथ में जनता को भी ले डूबेंगे‐‐‐‐‐‐‐‐।
दिल्ली में पार्टी का आम - प्रदर्शन हो अगर / रैली - महारैली या कारवां - ए - सफर ‐‐‐‐‐‐‐‐ दिल्ली चलों का नारा बुलंद हो जाते हैं / बेटिकट नेता जी, जनता को -
बेटिकट सबक सिखाते हैं ‐‐‐‐‐ ।
इस प्रकार, नेता जी बेटिकट -
भारत बचा रहे हैं / जनता को बेटिकट इक्कीसवीं सदी में ले जा रहे हैं ‐‐‐‐।
अब जरा, हथियार बंद - लट्ठबंद सिपाहियों से मिलें ‐‐‐‐‐‐
आईए मिलें जरा अपने मौसेरे भाईयों से मिलें ‐‐‐‐‐।
एक बार कंधो पर सितारों के
समूह धर लिए थे / एक दारोगा जी बेटिकट गाड़ी पकड़ लिए थे ‐‐‐‐‐‐। टी टी महोदय ने पूछे -
’आप जब स्वयं बेटिकट यात्री पकड़ते हैं / तो फिर आप क्यों बेटिकट सफर करते हैं ?
दारोगा टी टी को देखा, फिर मुस्कुराया
अपनी थोथी दलीलों से अवगत कराया -
“जानते नही, हम देश के रक्षक हैं / जनता के सुरक्षा कर्मी, नेताओं के अंगरक्षक हैं / हमारे ही संरक्षण में सरकारें सदैव चलती हैं / हमारी ही टीम जनसेवा में सदैव तत्पर रहती है । देश के विकास में हमारा योगदान है / हर गली, हर मोड़ पर सिर्फ हमारा ही गुनगाण है / हम देश, जनता और जनप्रतिनिधि के रक्षक हैं / इसलिए हमें बेटिकट चलने का मौरूसी हक है‐‐‐‐‐‐‐ ।’
लगा मांगने टी टी क्षमा -
उसासेें ले - लेकर / अबतक था है श्रीमान् !
मैं इन तथ्यों से बेखबर / आप इत्मीनान हो बैठिए / चाय,कॉफी की भी जरूरत हो तो खुलकर कहिए‐‐‐‐‐।
अब आईए मिलें एक साधु, एक महात्मा से / दयाबान, गुणवान, परम योगी धर्मात्मा से ‐‐‐‐‐‐‐‐।
धुटनों तक धोती, माथे पर त्रिपुण्ड चन्दन लगाये,
एक महात्मा अयोध्या जा रहे थे राम - रट लगाये ।
देवता की कृपा हुई / भाग्य ने यदि साथ दिया / तो बेटिकट साधु बाबा पहुंच जाएंगे अयोध्या‐‐‐‐‐‐‐।
उनके लिए बेटिकट सफर
एक वैराग्य - धर्म है / प्रकृत् जीवन का रिहर्सल है, एक सत्कर्म है‐‐‐‐‐‐‐‐।
संकल्प प्रबल है, अतएव मंजिल तक पहुंच जाएंगे । अन्यथा - जेलखाने में ही अपनी धूनी रमाएंगे ।
महंगाई के इस दौर में
जेल जाना परम सौभाग्य है / जेल में पहुंचे, तो समझिए प्रबल आपका भाग्य है‐‐‐‐‐‐‐‐‐ ।
सच कहता हूं साहब ! जिनको छः माह तक -
मुफ्त की रोटी खाने को मिल जाएगा
मंहंगाई के थपेड़ोें के बीच, अनायास -
उसके किस्मत का ताला खुल जाएगा‐‐‐‐‐‐‐‐‐।
हेे महाशय !
यह शुभ लक्षण है, कि -
सरकार के निर्देशों का नहीं पड़ता प्रभाव
हो रहा यह लोकप्रिय शहर - गांव - गिराव‐‐‐‐‐‐‐।
इससे प्रकट होता है, अभी क्रांति की आग बुझी नहीं / यह यथार्थपरक है, कोई पहेली अनबुझी नहीं
इसलिए-
बिना विचलित हुए, मैं बेटिकट सफर करता हू / प्रकृृत् जीवन के अनुरूप गुजर - बसर करता हूं ‐‐‐‐‐‐‐‐ ।”
कहते - कहते तनाव की लकीरें उस नौजवान के चेहरे पर खिंच गयी । एक अजीव सिहरन मन - मस्तिष्क में कौंध गयी । चेहरे पर तनाव - परेशानियों की रेखाएं अनायास उभर आयीं । कुछ क्षण तनाव व चिंता से ग्रस्त रहा, खामोश और चिंतारत् रहा‐‐‐....‐। झूम उठे मजिस्ट्रेट महोदय इस अनोखी ज्ञान से, पूछ बैठें पुनः विनम्र हो उस नौजवान से -
“चलना है तो चलें बेटिकट
महात्मा, सिपाही, नेता‐‐‐‐‐‐।
उन लोगों का रे मूर्ख ! तू क्यों आश्रय लेता ?
जहां देश को जाना है, वह जाएगा हीं / जिसको जो कुछ पाना है, वह पाएगा हीं ।
तू ऐसी चिंता से क्यों व्यर्थ मर रहा / अपनी गिरेबां झांकने से क्यों डर रहा ?
भारत मां के प्रति नहीें क्या तेरी जिम्मेदारी / तुझको नहीं क्या अपनी मातृभूमि प्यारी ?
मैं तुम्हारी धष्टता पर सख्त हैरान हूं / क्या करूं, क्या न करूं बेहद परेशान हूं‐‐‐‐‐‐‐‐‐।”
मजिस्ट्रेट की बातें सुन नौजवान सम्भला, पहले तो धबराया, परन्तु पुनः वह मचला, बोला-
“जब आप मेरे अतीत को जानेंगे / यथार्थ के दस्ताबेज को पलटकर पढ़ेंगे, तो मेरे दर्द से वाकिफ हो जाएंगे / मर अतीत की उलझनों से अलिभांति मुखातिब हो जाएंगे‐‐‐‐‐‐‐‐।
मजिस्ट्रेट ने कहा - “ठीक है फरमाओ / अपने अतीत से अवगत कराओ -- ।” लब को खोला और नौजवान बोला - “मैं जब उच्च - शिक्षा प्राप्त कर -
बेरोजगार हो गया था / औरों की तरह बेकार हो गया था, पापी पेट के लिए जब -
कुछ करने को दिल मचला / बजा सकता था नही ढ़ोल - तबला इसलिए -
जब सोचकर थक हार गया, तो -
अपना घर बेचकर किराएदार हो गया, फिर भी -
पर्याप्त पंूजी न मिल सकी उधोग के लिए
तो सबकुछ लुटाकरके जुर्म का ठेकेदार हो गया ।
तीन सौ दो / तीन सौ सात, और न जाने कितने मुकदमें लदे -
मुझपर / दहशत फैलाना, लूटना मेरा कारोबार हो गया ।
कहते हैं, खाली दिमाग -
शैतान का कारखाना है, इसलिए मेरा भी -
जुर्म से सरोकार हो गया -- ।
इतना कहकर वह नौजवान, मजिस्ट्रेट का मुंुह ताका, आखों ही आंखो में गहराई से झांका, कहा-
“हे महाशय ! बेटिकट सफर की समस्या ही -
देश की बड़ी समस्या नही है । शासनादेश की अवज्ञा नही है -- ।
सम्भालना है तो सम्भालिए -
असम - कश्मीर या तेलांगाना को
बिहार - पंजाब की आपराधिक अवमानना को ।
’शो - पीस’ बनकर रह गयी है देश की संसद
आतंक का शिकार हर इंसान हो रहा है -- ।
देश में लगी आग की चिंता नही उन्हेें /बाहर में -
शान्ति का ऐलान हो रहा है -- ।
है धर्म राजनीति को बिस्तर पे लिटाया / उन्हीं के -
ईशारों पे कत्ले आम हो रहा है -- ।
सत्ता की भूख ने इसे बना दिया जर्जर / स्वार्थ के -
खातिर गुलिस्तां विरान हो रहा है -- ।
बढ़ गयी बेरोजगारी - महंगाई इस कदर / सर पे -
रखके हाथ नौजवान रो रहा है -- ।
हर तरफ खामोशियों का आलम है यहां / इंसान की -
शक्ल में आदमी हैवान हो रहा है -- ।
दौड़ती अब धमनियों में द्वेष- धृणा - पाप / सपना -
मानवता का लहू - लुहान हो रहा है -- ।
सर्वत्र लुट - आगजनी - खौफ व आतंक / इंसान के -
लहूॅ का प्यासा इंसान हो रहा है -- ।
देखकर इस देश के हालात को भविष्य को / इंसान क्या -
रोएगा भगवान रो रहा है---।
दीखती है बात बनती पर बिगड़ती जा रही / हर कोई -
समस्याओं से अंजान हो रहा है -- ।
आज, स्वयं माझी निमंत्रण दे रहा तूफान को / कौव्वे के -
सिर पर मुकुट ददीप्यमान हो रहा है -- ।
राजपथ पर देखिए हिजरों की नौटंकी सजी / संसद मे -
गड़थैया का नृत्यगान हो रहा है -- ।
हम हतभागी जनता के अभाग पर दुर्भाग्य पर /जार - जार-
होकर के महाकाल रो रहा है -- ।
जरा सोचिए ! किस कदर जनता ने -
बन्द कर ली होठों की किवाड़ / आंखों को कर लिया कज में / दिलांे दिमाग को समेटकर देख रही बारूदी बौछाड़ ---।
कातर निगाहों से देख रहा है पुनः एक बार
भ्रमित लोकतंत्र / कि कब होगी जालिम राजनीतिज्ञों के हाथों से मेरी आत्मा स्वतंत्र -- ?
आज, हर जगह किसी न किसी रूप में फैली दहशत / जन - जन भयाक्रांत है / आंतक के साये से लिपटा -
भारत का हर प्रान्त है -- ।
स्वार्थ शासन के तले जनता भुवन है सो रही / आगजनी या लुटपाट गांव - शहर में हो रही -- ।
मैं ही नहीं सारा भुवन आजकल अशांत है,
आंतक के सायें से लिपटा भारत का हर प्रांत है ।
जो धूप में जिस्म की अंतड़ियांे को सुखाये / उनके बच्चे क्यों फूटपाथ पर भीख मांगकर खाये ?
फूटपाथ पर जल रही जो चुल्हों में लकड़िया, कुछ और नहीं -
धूप में सुखे हुए जिस्मों के आंत है,
आंतक के साये से निपटा भारत का हर प्रांत है ।
नेताओं की मत पूछिए ! जनता भुवन को रौंदते / मसलों से -
मुंह मोड़ यूं कुर्सी के पीछे दौड़ते -- ।
दंगा - फसाद कराकर सबको करते अशांत है,
आंतक के साये से लिपटा भारत का हर प्रांत है ।
जगह - जगह दहशत फैलाते, हंगामा करवाते हैं / नवयुवकों को -
उकसा - भटका सरेआम मरवाते हैं ।
अब तो गांव- शहर में रक्तपात आम बात है,
आतंक के साये में लिपटा भारत का हर प्रांत है ।
देश कहां जाएगा इसकी चिन्ता ही क्या / निन्दा योग्य -
नही हो उसकी निन्दा ही क्या ?
कुर्सी खातिर ये करवाते दंगा - फसाद है,
आंतक के साये में लिपटा भारत का हर प्रांत है ।
जातिय - वैमनस्यता यहां बढ़ गयी है इसकदर / अशांत हो गये
हैं गांव - कस्वा और शहर --।
सर्वत्र शांति की अब आवश्यकता नितांत है,
आंतक के साये में लिपटा भारत का हर प्रांत है ।
मसलों के चक्रव्यूह में फंस चुके हैं हम / अनसुलझे प्रश्नों में उलझ चुके हैं हम -- ।
रक्त के छींटो के बीच हर नया प्रभात है,
आतंक के साये में लिपटा भारत का हर प्रंात है ।
चढ़ रही है बार - बार चटकी हुई हांडी / इसलिए अब
दिख रहा विस्फोट अवश्यम्भावी -- ।
इसीलिए विद्रोह का हम कर रहे शंरवनाद हैं,
आतंक के साये में लिपटा भारत का हर प्रांत है ।”
नौजवान ने फिर आगे कहा, कि -
“हर तरफ है आज, आतंक का बढ़ता कहर / होश सबके -
उड़े हुए और सहमी - सहमी सी नजर -- ।
किसी गली में जिस्म की नंगी नुुमाईश / उसपर -
वासना के भूखे भेड़ियों की फरमाईश,
आंचल में दूध और आंखों मे पानी की करूणोदित छवि, और -
है हर सफर सन्नाटों का सफर -- ।
चोरी - डकैती - रक्तपात आम हो गये हैं / रक्त से भी
महंगे यहां जाम हो गये हैं,
हर तरफ खामोशी / दूर तक सन्नाटा
भूख से विलखते चेहरे की किसको खबर -- ।
सर्वत्र द्वेष - धृणा - पाप, वैमनस्यता का अंधियारा / आतंकित है प्राण, विलखता गांव, गलि - गलियारा,
शुभकामनाओं के बदले शुभचिन्तकों से, दोस्तों से
मिलता रहता है जहर --- ।
हे महाशय !
यहां जीना अब मुहाल हो गया है / आम - आदमी का
बुरा हाल हो गया है,
व्यस्ततम् भागमभाग में हो रहा जीवन बसर -- ।
क्या हमारी नैतिकता का हृास हो गया है ?
स्वस्थ मानसिकता का सर्वनाश हो गया है ?
छुद्र मानसिकता का प्रादुर्भाव हो गया है ?
सुखद मानसिकता का अभाव हो गया है ?
कितना अच्छा होता, कि देश जातिविहीन होता / धर्मविहीन होता या मजहबविहीन होता / हर व्यक्ति अपना नैतिक स्तर ऊंचा उठाने को कृत्संकल्प होता, तल्लीन होत ।
कुण्ठा - भाव से ग्रस्त न होकर / एक - दूसरे को -
आगे बढ़ने में मदद करते / अपना रंजो - गम आपस में बांटते -- ।
पहचान लेते एक - दूसरे के कदमों के निशान
साथ - साथ चलते राहों में -
एक - दूसरे के धावों पर मरहम लगाया करते / सहानुभूति - प्रेम - करूणा दर्शाया करते -- ।
हम गुजर - वसर करते पारस्परिक प्रेम, और -
सौहार्दपूर्ण वातावरण में - संदेह की गुंजाईश नहीं होती आचरण में, स्वच्छंद घूमते शेर - बकरी एक - साथ
जश्न मनाते मिलकर सारे - अंजुमन में / खुशियों का साम्राज्य होता काश ! हमारे वतन में --।
कोसों दूर होता हमसे कदाचार - बेईमानी - भ्रष्टाचार --
वैमनस्यता - अस्पृश्यता और दुरविचार --
रामराज्य होता सर्वत्र / मजहबी दंगे - फसाद नही होते
कितना अच्छा होता, कि -
हमारी धमनियों में दौड़ते सदाचार / समाचार - पत्रों में नही
आते भड़कीले और भ्रामक विचार ---
कितना अच्छा होता, कि -
मेरा भारत पुनः सोने की चिड़िया होता / महान होता
सम्पूर्ण विश्व में / दुनियाबाले तेरा भारत महान कहते / हम देश की
अस्मिता के लिए सर्वस्व न्यौछावर करते / हर्षोल्लास से मनाते
गणतंत्र दिवस समारोह / खून की होली के बदले पारस्परिक प्रेम
की होली होती /हम बांटते गैर मुल्कों को अमन चैन का विचार -- ।
जरा सोचिए, कितना अच्छा होता, कि -
सत्ता कि ऊंची गद्वीदार कुर्सियों पर गधे / खच्चर या सफेद हाथी नहीं बैठते /सत्ता की गलियारों में भालू धुर- धुर नहीं करते/बाज नहीं पकड़ते सत्ताधारियों के लिए शिकार/गिद्धों का जमधट नहीं होता अस्पतालों में/स्वार्थ के लिए कायदे कानून ताक पर नहीं रखते / अबोध जनता भुवन से तिकड़में नहीं करते / दूर होता हमारे आसपास से व्यभिचार -- । कितना अच्छा होता, कि -
सबकी धमनियों में एक ही रक्त बहती/मजहब-जाति के नाम पर जनता रक्त की होली खेलती/पारस्परिक-प्रेम वो सौहार्दपूर्ण वातावरण होता/अन्दर-अन्दर कोढ़ बाहर रेशमी आवरण नही होता / मनुष्य का सपना लहुलहुान नही होता / भय से आतंकित प्राण नही होता -- ।
ऊंचा होता स्तर नैतिकता का / सर्वत्र होता सदाचार -- ।”
उस नौजवान ने कथा आगे बढ़ाया / मजिस्ट्रेट को अपनी आप - बीति से परिचय कराया -
“मैं पहलीबार जेल गया, जब नौकरी तलाशने से तंग आकर / नेक इरादों का किया परित्याग/अपनी नैतिकता का किया त्याग / कायदे - कानून को ताक पर रख जलाई थी डिग्रीयां / कई डाके डाले / कितनी की चोरियां -- ।
मैं दूसरीवार जेल गया, जब कुछ सफेद पोश -
पुलिस महकमेे को दबदबाकर / मेरे निर्दाेष पिता को झूठी मुकदमों में फंसाकर / मेरी बहन के साथ किया बालात्कार / तब मेरी सोयी आत्मा कर उठी चित्कार / अगले ही दिन उस सफेद पोश पर किया जानलेवा हमला -- ।
मैं तीसरीबार जेल गया, जब अपने ऊपर लगे बदनामी के धब्बे को हटाने के लिए / अपने अस्तित्व को बचाने के लिए/ मस्तिष्क में लगी आग बुझाने के लिए / नकी और बदी में फर्क बताने के लिए -
भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं पर चलायी थी गोलियां --- ।
मैं चौथीवार जेल गया, जब -
भ्रष्टाचार मिटाने के लिए भ्रष्टाचार का / नैतिकता बचाने के लिए नरसंहार का / उग्रता मिटाने के लिए उग्रवाद का / तस्करी - कालावाजरी - आतंक वाद का सहारा लिया -
संयोग देखिए मैं पांचवी बार जेल गया, जब-
उन्हीं सफेदपोशों के द्वारा मेरे इरादों को नेक बताया गया / मेरे व्यक्तित्व को प्रखर बताया गया, फिर-
मेरे ऊपर लगे सारे इल्जामों को हटवाकर / राजनीतिक जलशे में सम्मान दिलवाकर / बूथ - कैप्चरिंग के लिए आमंत्रित किया गया-- ।
मैं छठी बार जेल गया, जब -
आलाकमान से हरी झंडी मिलने पर उग्रवादियों से की -
सांठगाठ / विधायकों की खरीद - फरोख्त की, सिखाया उन्हें आस्था व विश्वास का पाठ / उराया - धमकाया, दंगे - फसाद का प्रयास पुरजोर किया --- ।
आज बेटिकट सफर के आरोप में
मैं सातवीं बार जेल जाऊंगा, और इस प्रकार -
जब अर्द्धशतक पूरा करूंगा, अपने क्षेत्र का
विधायक बन जाऊंगा /फिर जनता की सहानुभूति व प्यार पाऊंगा / मंत्री बनूंगा, देश का कर्णधार हो जाऊंगा -- ।”
सुनकर वक्तव्य पानी - पानी हुए मजिस्ट्रेट महाशय, समझ कर नवयुवक की उन बातों का आशय । कुछ पल सोचा, फिर डाली निगाहें हवलदार की ओर, गर्जना कर कहा -
“ले जाओ इस धृष्ट बालक को / भ्रष्टाचार के बेहद -
चतुर नायक को/छःमाह के लिए जेल, और खत्म करो यह खेल- ।”
नेपथ्य से आवाज आती है, कि कुछ अन्तराल बाद आता है मजिस्ट्रेट का पत्र नौजवान के नाम, जिसमें लिखा होता है -
“वत्स ! तेरी भावनाओं को -
मेरा शत् - शत् बार प्रणाम् !
तेरे सत्य दृष्टांत पर / बेटिकट सफर के दर्शन और सिद्धान्त पर / रात भर सोचा था मै, हर शब्द - हर तथ्य पर दृष्टिपात कर -- ।
मुझको अब सत्य का आभास हो गया है / तेरे सिद्धान्त - दर्शन पर विश्वास हो गया है/समझकर तेरी हर बातों का आशय / हो गया ऐ वत्स, तुझसे मैं पराजय/मेरे जीवन का हुआ तेरे दर्शन से अरूणोदय/लिखे हुए थे बेहिचक लज्जित मजिस्ट्रेट महोदय -- ।
”अबतक रहा मैं देश की समस्याओं से अनजाना/ तेरे दर्शन का दिल से बेटा मैंने लोहा माना/उस बक्त जब मैंने किया गिरफ्तार तुझे, हथकड़ियो में जकड़ा था/कैसे बताऊं ह्रदय मेरा टूट-टूट कर विखरा था/क्यों दिया मैं जेल, यह सोच मन ही मन मैं रोया था/करवटें बदलता रहा रात-भर, न जागा, न सोया था --।
परन्तु अक्रस्मात् !
मैं खामोश हुआ, स्तब्ध हुआ / आंसुओ का सैलाब आना बन्द हुआ । मेरी आत्मा ने कहा- खबरदार !
मत कर अपनी आंसुओ की बौछार/माना वह नौजवान है होनहार उस नवयुवक का कथ्य है कटु सत्य/परन्तु तूने जो किया क्या वह नहीं था तेरा नैतिक कर्तव्य ?
बहुत देर तक होता रहा -
प्रज्ञा और विवेक के बीच अंतर्द्वन्द / शनैः शनैः हुआ यह बाद विवाद मंद -- ।
एक बार, फिर -
मेरे विवेक ने धिक्कारते हुए कहा/पश्चाताप पर ललकारते हुए कहा - तूने उसके अपराधों की सजा दी, जा तेरा पुनीत कर्तव्य था । तेरा नैतिक अधिकार था / पाप - पुण्य की शिक्षा थी / तू खरा उतरा सफलता की कसौटी पर / कर्तव्यों की बली - बेदी पर -- । इस प्रकार -
प्रज्ञा और विवेक के बीच अन्तर्द्धन्द समाप्त हुआ / मुझको मेरे कर्तव्य का बोध स्वविवेक से प्राप्त हुआ -- ।
वत्स, तुझसे जो कुछ सिरवा मैंने वह -
दिन - रात मेरे मस्तिष्क में कौंधती है/मेरे देह, मेरी धमनियों में दौड़ती है---।
शुभकामनाओं के साथ -
तुम्हारा मजिस्ट्रेट !”
ताहिरा का इशारा होते ही रिकॉर्डिगं रूक गया । काव्य नाटिका की सफल रिकॉर्डिगं पर गद्बाद् है ताहिरा । झींगना को बधाई दी । विश्वास ही नहीं हो रहा है उसे कि उसने अपने किरदार को एक बारगी कैसे निभाया ?