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16 जनवरी 1939 को ग्वालियर में जन्में नरेश सक्सेना उन कुछ विरल कवियों में से एक हैं, जिन्होने बहुत कम लिखकर भी बहुत ख्याति पायी है । वे बिलक्षण कवि हैं और कविताओं के गहन पड़ताल में विश्वास रखते हैं, इसका एक सबूत यह है कि 2001 में वे ‘समूद्र में हो रही है बारिस‘ के साथ पहली बार साहिबे-किताब बने और 74 की उम्र में भी अबतक उनके नाम पर बस वही किताब दर्ज़ है । इस पहलू से देखें तो वे आलोक धन्वा और मनमोहन की बीरदारी में खड़े नज़र आएंगे । इनके यहाँ कविता केवल कविता के रूप में नहीं बल्कि जीवनानुभावों के रूप में आती है और यही उनकी कविताओं की मूल ताक़त है । प्रस्तुत है वहुचर्चित कवि नरेश सक्सेना से ज्योत्सना पाण्डेय की बातचीत के प्रमुख अंश :
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परिकल्पना ब्लॉगोत्सव
» जो देश अपनी ही भाषा में काम नहीं करते वे हमेशा पिछड़े रहते हैं : नरेश सक्सेना
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