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उपन्यास में वर्णित स्थान, काल, पात्र एंव धटनाएं काल्पनिक हैं , किन्तु समय के पहिए की तरह सत्य के इर्द-गिर्द चक्कर काटती कथा यात्रा उपसंहार पर जाकर ठहरती जरूर है--- क्षमा करिएगा !
उपन्यास में वर्णित स्थान, काल, पात्र एंव धटनाएं काल्पनिक हैं , किन्तु समय के पहिए की तरह सत्य के इर्द-गिर्द चक्कर काटती कथा यात्रा उपसंहार पर जाकर ठहरती जरूर है--- क्षमा करिएगा !
()रवीन्द्र प्रभात
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(एक)
‘‘जगो रे मजूर भाई -
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(एक)
‘‘जगो रे मजूर भाई -
हलधर किसनवा---
चहुंपेवाला बा घर मा सुरूजवा ----
आंखि खोलऽ ,
विस्तर छोड़ि /भोर के पपीहवा ---
नित का करमवा करि आगे बढ़ऽ मीतवा ---
जागो रे ऽ जागो ऽऽ रे ऽऽजागो रे किसनवा !
मेहनत क आगे झुकी पक दिन विधाता
बाउर नाही जाई भइया तोहरे पसीनवा !
नाही जगब ऽ समय से त /
कुछ नही हासिल होई -
आई हक मार ले जाई बटमरबा !!‘‘
पौ फटने के पहले, बहुत पहले जगता झींगना । पराती गाते हुए डालता सूअरों को खोप में । दिशा - फारिग के बाद खाता नोन - प्याज - रोटी और निकल जाता जीवन के रूमानियत से दूर किसी मुर्दाघर की ओर। दूर - दूर तक कोई रिश्ता नहीं आलस्य का झींगना के साथ । गांव के बच्चे- बुजुर्ग उसकी तारीफ करते नहीं थकते । कहते, कि ‘‘झींगना के जागते ही भाग खड़ा होता मलेछ गांव छोड़कर ...... उसकी पराती की आवाज सुनकर चिंहुकने लगती है चिड़िया - चुनमुन .....झींगना है तो हर समय फागुन की फगुनाहट ...... नहीं है, तो समझो जीवन ही नहीं ...... ।‘‘जब जन्मा था झींगना, उसके बाबू ने दम तोड़ दिया था समाज के ताने सुन-सुनकर ।
उसका बाबू जीवन राम यानी जीवना मैला ढोकर गुजारा करता था और माई यानी जानकी चाकरी करती थी तेजू सिंह की हबेली में। बड़ी सुघर थी जानकी, लोग जनकिया कहकर पुकारते । बड़ा रूतवा था जनकिया का गांव में । रूतवा हो भी न कैसे हवेली से जुड़ी जो थी । हवेली में काम करना अच्छा नहीं लगता था जीवना को । लोग तरह - तरह की बातें करते, ताना मारते, उसे दुःख होता ।
वह नहीं चाहता था कि उसकी मेहरारू तेजू सिंह के यहां मजूरी करे, लेकिन जहां पेट पालना मुश्किल हो वहां हवेली में मजूरी करने से गुरेज क्यों ?
अपने मरद को समझाती जनकिया, कि ‘‘भीख मांगने से त ऽ अच्छा है न ऽ ई करम।‘‘
कुछ दिनों के बाद जनकिया को खुश करने के लिए पगार बढ़ा दिया तेजू सिंह ने । जनकिया कमाती और ठर्रा पीकर धुत रहता जीवना । तेजू सिंह भूमिहार जाति का दबंग व्यक्ति था गांव में । बाप - दादों की जमींदारी का अकेला वारिस । अब जमींदारी तो रही नहीं , मगर रगों में बसा अहंकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी की यात्रा तय करता हुआ ठहरा था तेजू सिंह के पास ।
गांव वालों की नजर में दर कमीना था वह। अपने अलग उसूल थे उसके। सामंतवादी व्यवस्था का जीता-जागता नमूना । चतुरी का कहना है, कि ‘‘ भगवान जाने जनकिया और तेजू के नाजायज सम्बन्ध थे भी या नहीं, मगर समाज का मुह बन्द करे कौन ?
कहते है झीगना के नाक - नक्श मिलते हैं तेजू सिंह सें । खुलकर कोई बोले कइसे, तेजू सिंह का आतंक जो है गांव में । जीवना के मरने के बाद जनकिया का एक ही लक्ष्य था झींगना की पढ़ाई । उसे पढ़ा - लिखाकर बड़ा आदमी बनाना चाहती थी जनकिया, मगर शायद, बिधाता को यह मंजूर नहीं था । सो जइसे - तइसे झींगना ने हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी की और कलेक्ट्रीयट में नौकरी करने लगा ।
एक दिन जरा सी गलती पर साहेब ने यह कहकर डांट पिलाई कि कोटे बाले हो, कभी नहीं सुधरोगे । झींगना को लग गयी साहेब की बात, आव देखा न ताव मार दी ठोकर सरकारी नौकरी को । तुनुक - मिजाज झींगना ने फाइल पटका मेज पर और यह कहते हुए चला आया घर कि ‘‘यह लो अपनी लकुटि कमरिया, बहुत ही नाच नचायो -!"
नौकरी छोड़ने के बाद झींगना ने अपना लिया अपना पारम्परिक पेशा। साथ ही अपने कमजोर कंधों पर उठा लिया अपनी बिरादरी और समाज के उत्थान का बीड़ा। । समय के साथ जनकिया भी भगवान को प्यारी हो गयी और विल्कुल अकेला हो गया झींगना । समय का पहिया चलता रहा और उसी के साथ बदलती रहीं परिस्थितियां भी । झींगना की दिलचस्पी समाज सेवा में बढ़ती चली गयी ! जन - आंदोलन की अगुवाई करने लगा वह । इसी बीच सुरसतिया से उसकी आंखें चार हुई और अन्ततः बियाह भी ।
जब से सुरसतिया को ब्याह कर लाया हैं झींगना, बदल गया है उसके जीने का ढ़ंग । आठवीं पास है सुरसतिया । आगे पढ़ने नहीं दिया उसके बाबू ने, कहा - ‘‘हरिजन की विटिया जादा पढ़ लिख लेई त के व्याही ? बड़हन लोगन की बड़हन...बात ..... हम उनके परतर कइसे कर सकत हईं......!‘‘
अपना एक अलग संसार है झींगना का । यारों के यार, चहेतों के दिलदार और अपनी अपनी प्राण प्रिया जीवन - संगिनी सुरसतिया के जाने - बहार झीगना के चाल-ढाल के क्या कहने । पहले तो वह मैला ढ़ोने से भी गुरेज नहीं रखता था । शर्म भी नहीं आती थी उसे, परम्परागत पेशा जो था उसका । जबसे आयी है सुरसतिया, मैला ढ़ोना बंद । कहती है सुरसतिया... देखो जी ! चाहे जो काम करो लेकिन ई काम मा हाथ मत लगाओ, घिन्न होती है हमे, जी कुढ़ता है । मुर्दाघर वाला काम ठीक हए वही करो ......।‘‘
झींगना अंधा प्यार करता है अपनी मेहरारू को । उसकी हर बात मानना अपनी शान समझता है । उसका मानना है, कि हर मरद की कामयाबी के पीछे कोई न कोई औरत ही तो होती है । उसकी ख्वााहिश है गांव के धरिछन पाण्डे की तरह बडे़ आदमी बनने की....!
दरअसल धरिछन पांडे भी गँाव के गरीब परिवार से ही आता था कभी । गांव वालों ने उसके ऊंचे रसूख को देखकर चुनाव जितवा दिया । पहले एम.एल.ए बना, फिर मंत्री । अब तो पॉचों उंगलियां घी में है उसकी ।
कभी मौज आने पर वह कहता - ‘‘कवनी चिरइया सुख सोये भइया रे कवनी चिरइया रोये रात । सुखिया चिरइया सुख सोये भइया रे दुखिया चिरइया रोये रात ।।‘‘ सुरसतिया से गम्भीर होकर कहता - ‘‘देखा जी एक दिन बनना है हमें बहुत बड़ा आदमी, मगर समझ में नही आता कि कइसंे बनें ...... का करें ...? तुम्ही कुछ सोचकर बताओ न ....... ।‘‘
सुरसतिया को उसकी बिना आधार वाली बातों मे कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन वह कुछ भी ऐसा नहीं कहना चाहती जिससे झींगना की भावनाओं को ठेंस पहुंचे । अक्सर मुस्कुराते हुए वह यह कहकर टाल जाती - ‘‘ रहने दो जी ! मुंगेरी लाल मत बनो ।‘‘
अपने परम्परागत पेशे को ढ़ोता हुआ बहुत खुश है झींगना । शाम को मुर्दाघर से लौटते हुए जब थककर चूर होता वह लौट आता अपने घर कांख में दबाये सत्तर - पच्चास नम्बर की देशी शराब और पीकर भूल जाता दिनभर के सारे तनाव । सुरसतिया उसके पूरे बदन में करूतेल की मालिश कर मिटा देती दिनभर की थकान । समय पड़ने पर वह अपने पति के हर काम में हाथ बटाती। दोनों बहुत खुश अपनी दिनचर्या पर और अपने सौभाग्य पर । सिनेमा से दूर रहने वाला झींगना कभी - कभी खुद बन जाता सिनेमा और जुटा लेता अच्छी खासी भीड़ अपने इर्द - गिर्द, अलाप लेकर अल्हा - ऊदल, सोरठी - विरजा भार, सारंगा - सदावृज, मरधरी चरित या विहुला वाला लखंदर का या फिर परम्परागत उमकच गीत ही क्यों न हो महारत हासिल है झींगना को ।
सांझ ढलने और पक्षियों के घांेसले में दुबकते ही चाहे सावन की फुहार हो या भांदों की रिमझिम उसकी अलाप की आवाज सुनते ही थम जाता गांव । ‘‘एक मूठा चाउर पियरी रंगाइ देहली चार कोना नेवती बलाई हो जनकपुर में मचेली लड़ाई हो । नीचे चउतरा में टेकल बा धनुक - बान बान देखि के सवै डेराई हो । जनकपुर में मचेली लड़ाई हो ......।‘‘शौकीन सारा काम छोड़कर झींगना की ओर खिंचे चले आते । प्रणों में चेतना, बाजुओं में फड़कन, रगों में उबाल ला देने वाला यह अलाप झींगना को दूर - दूर तक आसपास के गांव में लोकप्रिय बना रखा है एक लोक गायक के रूप में।
श्रोताओं में हर बार नई ऊर्जा का संचार करने में झींगना को महारत हासिल है, मगर वामन टोली के कुछ सवर्ण उसे लोग - गायक की मान्यता देने से कतराते हैं । कहते हैं - ‘‘ई डोम - चमारन के जादा सर चढ़ाना ठीक बात नाही ..... बड़हन लोगन के साथ उठते - बइठते सीख लिया है शऊर बोलने का त बकबकाता रहता है हर बखत ...... ।‘‘
वामन टोली से जब कभी गुजरता झींगना, उकसा देता कोई न कोई फिकरे कसते हुए । उसे सब भांट की संज्ञा से नवाजते । कोई कहता..... ‘‘भड़इती करता है ससुरा ..... न सुर न ताल - गाल बजा - बजाके बन गये भिखारी ठाकुर के लाल .... ।‘‘ कोई कहता - ‘‘न डफली, न राग ..... देखो चला लंगोटी पहनकर खेलने फाग ..... ।’’ उससे जितना भी बन पड़ता, खामोश रहने की कोशिश करता । कहता - ‘‘बेवजह गेंग बझाने से का फायदा ?’’
मगर जब कभी पानी सिर के ऊपर से गुजर जाता, चीढ़ जाता झींगना बड़हन लोगन की बात - बतकही सुनकर । अचानक तेज स्वर में चिल्लाने लगता और पलटकर जबाब देता - ‘‘पाण्डे बाबा, जादा मजाक उड़ावे के कवनो जरूरत नाहीं ..... एक न एकं दिन हीरे की कदर जौहरी जरूर करेगा ..... तब देखिएगा झींगना का जलवा ......हा....... ।‘‘
वैसे अब किसी की तंज बयानी का कोई असर नहीं होता झींगना पर। उसे पूरा विश्वास है कि वह एक न एक दिन अपनी गायकी का लोहा मनवाकर रहेगा । मन ही मन यह कहकर संतोष कर लेता कि - ‘‘जेकरा खेले के बा ऊ खेले लंगोटी पहन के फाग ..... हमार का आपन डफली आपन राग....।‘‘
झींगना को तनिक भी परवाह नहीं कि कौन क्या कहता है उसके बारे में । कौन क्या सोचता है उसके बारे में । जैसा पहले था वैसा आज । अपनी धुन में मस्त । पूरी तरह मस्त-मलंग है झीगना । किसी के ऊपर आफत - विपत्त आ जाए बिन बुलाये मेहमान की मानिन्द हाजिर हो जाता । जितना बन पड़ता, करता । उसकी नजर में उसका कोई दुश्मन नहीं । सब दोस्त हैं ।
गांव के लोग कहते हैं झींगना मानव नहीं, डोमवाघरारी का संत है । हर क्षे़त्र में सहभागिता हर क्षेत्र में हस्तक्षेप । समाज और बिरादरी का दर्द उसे ज्यादा आहत करता । गाहे - बगाहे मनुवादियों की काली करतुतों का पर्दाफाश करने से भी गुरेज नहीं रखता वह। यही वह वजह है जिससे वह वामन टोली की आंखों में सदैव चुभता रहता है । नेतागीरी की छद्म मानसिकता से दूर वह खुद को नेता कहलाना पसंद नहीं करता, समाज सेवक बने रहना चाहता है ।
कहता है झींगना, कि-‘‘नेता मत कहो हमें चाहे जो कुछ भी कह लो ..... नेता शब्द गाली है गाली ...... जहां नेता वहां चापलूस - चाटुकार ......थोड़ा और ऊपर उठे तो अंगराई लेने लगती है भ्रष्टाचार ...... न शरम, न लिहाज....बढ़ता रहे बेहयाई का जहाज ..... थू-थू ऐसी नेतागीरी पर....।‘‘
एम.एल.ए. धरिछन पाण्ड़े को फूटी आंखों नहीं सुहाता झींगना। उसे डर है कि इसी तरह झींगना की लोक प्रियता बढ़ती रही तो एक दिन मेरी जगह वह होगा और उसकी जगह मैं । वह हमेशा इसी ख्याल में खोया रहता कि कब सुयोग बने और वह झींगना को पटकनी दे दे । सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे । इस सबसे इतर गांव के प्रधान चतुरी राऊत को गर्व है अपने झींगना पर । अपने होनहार विरवान की तारीफ करते कभी नहीं थकते । कहते - ‘‘हमरा झींगना शान है हमरी विरादरी का ...... गांव की धड़कन है धड़कन .....।‘‘
बाउर नाही जाई भइया तोहरे पसीनवा !
नाही जगब ऽ समय से त /
कुछ नही हासिल होई -
आई हक मार ले जाई बटमरबा !!‘‘
पौ फटने के पहले, बहुत पहले जगता झींगना । पराती गाते हुए डालता सूअरों को खोप में । दिशा - फारिग के बाद खाता नोन - प्याज - रोटी और निकल जाता जीवन के रूमानियत से दूर किसी मुर्दाघर की ओर। दूर - दूर तक कोई रिश्ता नहीं आलस्य का झींगना के साथ । गांव के बच्चे- बुजुर्ग उसकी तारीफ करते नहीं थकते । कहते, कि ‘‘झींगना के जागते ही भाग खड़ा होता मलेछ गांव छोड़कर ...... उसकी पराती की आवाज सुनकर चिंहुकने लगती है चिड़िया - चुनमुन .....झींगना है तो हर समय फागुन की फगुनाहट ...... नहीं है, तो समझो जीवन ही नहीं ...... ।‘‘जब जन्मा था झींगना, उसके बाबू ने दम तोड़ दिया था समाज के ताने सुन-सुनकर ।
उसका बाबू जीवन राम यानी जीवना मैला ढोकर गुजारा करता था और माई यानी जानकी चाकरी करती थी तेजू सिंह की हबेली में। बड़ी सुघर थी जानकी, लोग जनकिया कहकर पुकारते । बड़ा रूतवा था जनकिया का गांव में । रूतवा हो भी न कैसे हवेली से जुड़ी जो थी । हवेली में काम करना अच्छा नहीं लगता था जीवना को । लोग तरह - तरह की बातें करते, ताना मारते, उसे दुःख होता ।
वह नहीं चाहता था कि उसकी मेहरारू तेजू सिंह के यहां मजूरी करे, लेकिन जहां पेट पालना मुश्किल हो वहां हवेली में मजूरी करने से गुरेज क्यों ?
अपने मरद को समझाती जनकिया, कि ‘‘भीख मांगने से त ऽ अच्छा है न ऽ ई करम।‘‘
कुछ दिनों के बाद जनकिया को खुश करने के लिए पगार बढ़ा दिया तेजू सिंह ने । जनकिया कमाती और ठर्रा पीकर धुत रहता जीवना । तेजू सिंह भूमिहार जाति का दबंग व्यक्ति था गांव में । बाप - दादों की जमींदारी का अकेला वारिस । अब जमींदारी तो रही नहीं , मगर रगों में बसा अहंकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी की यात्रा तय करता हुआ ठहरा था तेजू सिंह के पास ।
गांव वालों की नजर में दर कमीना था वह। अपने अलग उसूल थे उसके। सामंतवादी व्यवस्था का जीता-जागता नमूना । चतुरी का कहना है, कि ‘‘ भगवान जाने जनकिया और तेजू के नाजायज सम्बन्ध थे भी या नहीं, मगर समाज का मुह बन्द करे कौन ?
कहते है झीगना के नाक - नक्श मिलते हैं तेजू सिंह सें । खुलकर कोई बोले कइसे, तेजू सिंह का आतंक जो है गांव में । जीवना के मरने के बाद जनकिया का एक ही लक्ष्य था झींगना की पढ़ाई । उसे पढ़ा - लिखाकर बड़ा आदमी बनाना चाहती थी जनकिया, मगर शायद, बिधाता को यह मंजूर नहीं था । सो जइसे - तइसे झींगना ने हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी की और कलेक्ट्रीयट में नौकरी करने लगा ।
एक दिन जरा सी गलती पर साहेब ने यह कहकर डांट पिलाई कि कोटे बाले हो, कभी नहीं सुधरोगे । झींगना को लग गयी साहेब की बात, आव देखा न ताव मार दी ठोकर सरकारी नौकरी को । तुनुक - मिजाज झींगना ने फाइल पटका मेज पर और यह कहते हुए चला आया घर कि ‘‘यह लो अपनी लकुटि कमरिया, बहुत ही नाच नचायो -!"
नौकरी छोड़ने के बाद झींगना ने अपना लिया अपना पारम्परिक पेशा। साथ ही अपने कमजोर कंधों पर उठा लिया अपनी बिरादरी और समाज के उत्थान का बीड़ा। । समय के साथ जनकिया भी भगवान को प्यारी हो गयी और विल्कुल अकेला हो गया झींगना । समय का पहिया चलता रहा और उसी के साथ बदलती रहीं परिस्थितियां भी । झींगना की दिलचस्पी समाज सेवा में बढ़ती चली गयी ! जन - आंदोलन की अगुवाई करने लगा वह । इसी बीच सुरसतिया से उसकी आंखें चार हुई और अन्ततः बियाह भी ।
जब से सुरसतिया को ब्याह कर लाया हैं झींगना, बदल गया है उसके जीने का ढ़ंग । आठवीं पास है सुरसतिया । आगे पढ़ने नहीं दिया उसके बाबू ने, कहा - ‘‘हरिजन की विटिया जादा पढ़ लिख लेई त के व्याही ? बड़हन लोगन की बड़हन...बात ..... हम उनके परतर कइसे कर सकत हईं......!‘‘
अपना एक अलग संसार है झींगना का । यारों के यार, चहेतों के दिलदार और अपनी अपनी प्राण प्रिया जीवन - संगिनी सुरसतिया के जाने - बहार झीगना के चाल-ढाल के क्या कहने । पहले तो वह मैला ढ़ोने से भी गुरेज नहीं रखता था । शर्म भी नहीं आती थी उसे, परम्परागत पेशा जो था उसका । जबसे आयी है सुरसतिया, मैला ढ़ोना बंद । कहती है सुरसतिया... देखो जी ! चाहे जो काम करो लेकिन ई काम मा हाथ मत लगाओ, घिन्न होती है हमे, जी कुढ़ता है । मुर्दाघर वाला काम ठीक हए वही करो ......।‘‘
झींगना अंधा प्यार करता है अपनी मेहरारू को । उसकी हर बात मानना अपनी शान समझता है । उसका मानना है, कि हर मरद की कामयाबी के पीछे कोई न कोई औरत ही तो होती है । उसकी ख्वााहिश है गांव के धरिछन पाण्डे की तरह बडे़ आदमी बनने की....!
दरअसल धरिछन पांडे भी गँाव के गरीब परिवार से ही आता था कभी । गांव वालों ने उसके ऊंचे रसूख को देखकर चुनाव जितवा दिया । पहले एम.एल.ए बना, फिर मंत्री । अब तो पॉचों उंगलियां घी में है उसकी ।
कभी मौज आने पर वह कहता - ‘‘कवनी चिरइया सुख सोये भइया रे कवनी चिरइया रोये रात । सुखिया चिरइया सुख सोये भइया रे दुखिया चिरइया रोये रात ।।‘‘ सुरसतिया से गम्भीर होकर कहता - ‘‘देखा जी एक दिन बनना है हमें बहुत बड़ा आदमी, मगर समझ में नही आता कि कइसंे बनें ...... का करें ...? तुम्ही कुछ सोचकर बताओ न ....... ।‘‘
सुरसतिया को उसकी बिना आधार वाली बातों मे कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन वह कुछ भी ऐसा नहीं कहना चाहती जिससे झींगना की भावनाओं को ठेंस पहुंचे । अक्सर मुस्कुराते हुए वह यह कहकर टाल जाती - ‘‘ रहने दो जी ! मुंगेरी लाल मत बनो ।‘‘
अपने परम्परागत पेशे को ढ़ोता हुआ बहुत खुश है झींगना । शाम को मुर्दाघर से लौटते हुए जब थककर चूर होता वह लौट आता अपने घर कांख में दबाये सत्तर - पच्चास नम्बर की देशी शराब और पीकर भूल जाता दिनभर के सारे तनाव । सुरसतिया उसके पूरे बदन में करूतेल की मालिश कर मिटा देती दिनभर की थकान । समय पड़ने पर वह अपने पति के हर काम में हाथ बटाती। दोनों बहुत खुश अपनी दिनचर्या पर और अपने सौभाग्य पर । सिनेमा से दूर रहने वाला झींगना कभी - कभी खुद बन जाता सिनेमा और जुटा लेता अच्छी खासी भीड़ अपने इर्द - गिर्द, अलाप लेकर अल्हा - ऊदल, सोरठी - विरजा भार, सारंगा - सदावृज, मरधरी चरित या विहुला वाला लखंदर का या फिर परम्परागत उमकच गीत ही क्यों न हो महारत हासिल है झींगना को ।
सांझ ढलने और पक्षियों के घांेसले में दुबकते ही चाहे सावन की फुहार हो या भांदों की रिमझिम उसकी अलाप की आवाज सुनते ही थम जाता गांव । ‘‘एक मूठा चाउर पियरी रंगाइ देहली चार कोना नेवती बलाई हो जनकपुर में मचेली लड़ाई हो । नीचे चउतरा में टेकल बा धनुक - बान बान देखि के सवै डेराई हो । जनकपुर में मचेली लड़ाई हो ......।‘‘शौकीन सारा काम छोड़कर झींगना की ओर खिंचे चले आते । प्रणों में चेतना, बाजुओं में फड़कन, रगों में उबाल ला देने वाला यह अलाप झींगना को दूर - दूर तक आसपास के गांव में लोकप्रिय बना रखा है एक लोक गायक के रूप में।
श्रोताओं में हर बार नई ऊर्जा का संचार करने में झींगना को महारत हासिल है, मगर वामन टोली के कुछ सवर्ण उसे लोग - गायक की मान्यता देने से कतराते हैं । कहते हैं - ‘‘ई डोम - चमारन के जादा सर चढ़ाना ठीक बात नाही ..... बड़हन लोगन के साथ उठते - बइठते सीख लिया है शऊर बोलने का त बकबकाता रहता है हर बखत ...... ।‘‘
वामन टोली से जब कभी गुजरता झींगना, उकसा देता कोई न कोई फिकरे कसते हुए । उसे सब भांट की संज्ञा से नवाजते । कोई कहता..... ‘‘भड़इती करता है ससुरा ..... न सुर न ताल - गाल बजा - बजाके बन गये भिखारी ठाकुर के लाल .... ।‘‘ कोई कहता - ‘‘न डफली, न राग ..... देखो चला लंगोटी पहनकर खेलने फाग ..... ।’’ उससे जितना भी बन पड़ता, खामोश रहने की कोशिश करता । कहता - ‘‘बेवजह गेंग बझाने से का फायदा ?’’
मगर जब कभी पानी सिर के ऊपर से गुजर जाता, चीढ़ जाता झींगना बड़हन लोगन की बात - बतकही सुनकर । अचानक तेज स्वर में चिल्लाने लगता और पलटकर जबाब देता - ‘‘पाण्डे बाबा, जादा मजाक उड़ावे के कवनो जरूरत नाहीं ..... एक न एकं दिन हीरे की कदर जौहरी जरूर करेगा ..... तब देखिएगा झींगना का जलवा ......हा....... ।‘‘
वैसे अब किसी की तंज बयानी का कोई असर नहीं होता झींगना पर। उसे पूरा विश्वास है कि वह एक न एक दिन अपनी गायकी का लोहा मनवाकर रहेगा । मन ही मन यह कहकर संतोष कर लेता कि - ‘‘जेकरा खेले के बा ऊ खेले लंगोटी पहन के फाग ..... हमार का आपन डफली आपन राग....।‘‘
झींगना को तनिक भी परवाह नहीं कि कौन क्या कहता है उसके बारे में । कौन क्या सोचता है उसके बारे में । जैसा पहले था वैसा आज । अपनी धुन में मस्त । पूरी तरह मस्त-मलंग है झीगना । किसी के ऊपर आफत - विपत्त आ जाए बिन बुलाये मेहमान की मानिन्द हाजिर हो जाता । जितना बन पड़ता, करता । उसकी नजर में उसका कोई दुश्मन नहीं । सब दोस्त हैं ।
गांव के लोग कहते हैं झींगना मानव नहीं, डोमवाघरारी का संत है । हर क्षे़त्र में सहभागिता हर क्षेत्र में हस्तक्षेप । समाज और बिरादरी का दर्द उसे ज्यादा आहत करता । गाहे - बगाहे मनुवादियों की काली करतुतों का पर्दाफाश करने से भी गुरेज नहीं रखता वह। यही वह वजह है जिससे वह वामन टोली की आंखों में सदैव चुभता रहता है । नेतागीरी की छद्म मानसिकता से दूर वह खुद को नेता कहलाना पसंद नहीं करता, समाज सेवक बने रहना चाहता है ।
कहता है झींगना, कि-‘‘नेता मत कहो हमें चाहे जो कुछ भी कह लो ..... नेता शब्द गाली है गाली ...... जहां नेता वहां चापलूस - चाटुकार ......थोड़ा और ऊपर उठे तो अंगराई लेने लगती है भ्रष्टाचार ...... न शरम, न लिहाज....बढ़ता रहे बेहयाई का जहाज ..... थू-थू ऐसी नेतागीरी पर....।‘‘
एम.एल.ए. धरिछन पाण्ड़े को फूटी आंखों नहीं सुहाता झींगना। उसे डर है कि इसी तरह झींगना की लोक प्रियता बढ़ती रही तो एक दिन मेरी जगह वह होगा और उसकी जगह मैं । वह हमेशा इसी ख्याल में खोया रहता कि कब सुयोग बने और वह झींगना को पटकनी दे दे । सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे । इस सबसे इतर गांव के प्रधान चतुरी राऊत को गर्व है अपने झींगना पर । अपने होनहार विरवान की तारीफ करते कभी नहीं थकते । कहते - ‘‘हमरा झींगना शान है हमरी विरादरी का ...... गांव की धड़कन है धड़कन .....।‘‘
......क्रमश: ....2
agli kadi ki prateeksha
जवाब देंहटाएंइस नए और सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
जवाब देंहटाएंअब आपका यह उपनयास पढ़ जायेंगे हम !
जवाब देंहटाएंआभार !
शानदार प्रयास बधाई और शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंएक विचार : चाहे कोई माने या न माने, लेकिन हमारे विचार हर अच्छे और बुरे, प्रिय और अप्रिय के प्राथमिक कारण हैं!
-लेखक (डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश') : समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान- (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। जिसमें 05 अक्टूबर, 2010 तक, 4542 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता राजस्थान के सभी जिलों एवं दिल्ली सहित देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे), मो. नं. 098285-02666.
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