(पाँच)
आज सुबह से हीं सुरसतिया अपनी कुल देवी बन्नी गौरैया की पूजा में मशगूल है । मनौतियां मांग रही है पति की कामयाबी के लिए । उसकी इच्छा है कि उसका पति एक महान लोक कलाकार बने भीरवारी ठाकुर की तरह । वाभन टोली के लोगों का गुमान तोड़ना चाहती है वह । उसे बस इसी बात की चीढ़ है कि समाज में उसके भी होने का एहसास क्यों नही है ? लोग डोम - चमार कहकर उसकी विरादरी का उपहास क्यों उड़ाते हैं ? उससे धृणा का भाव क्यों रखते हैं ?
कहती है सुरसतिया - लगातार बखत के थप्पड़ खाने के बाद भी हम नहीं बदले, लेकिन बखत के साथ - साथ ई बड़हन लोग बदल दिहलें हमरे नाम । पहिले अस्पृश्य कहलें, फेर अछूत, बाद में हरिजन आउर अब दलित कहके मजाक उड़ाते हएं । कल कवनो नया नाम जोड़ देंगे हमरे नाम के साथ । अरे ई लोग हमका हमरे काम से पहचान काहे नाहीं करत हएं ।”
कहते - कहते तन आती हैं नसें, बहने लगते हैं लोर बेतरतीब और आंचल में मुंह छिपाकर विफरने लगती हैं वह नारी के धैर्य की टूटती सीमाओं के भीतर आकार ले रही रणचण्डी की तरह ......।
सुरसतिया को बस इसी बात का मलाल है, कि “बड़हन लोग अपने मतलब खातिर करिहें हमार इस्तेमाल आउर मतलब निकलला के बाद ऊहे ढ़ाक्र के तीन पात ....... ।”
खैर, अब उसे भरोसा हो गया है, कि उसका पति झींगना अपने कर्मों से अवश्य उद्धार करेगा उसकी विरादरी का । अपने हुनर से बदल देगा सारी अवधारणाएं समाज की । तोड़ देगा मिथक्र । एक दिन जरूर बनेगा वह बड़ा आदमी ।
सुबह के आठ बजे है, पिछले तीन -धंटों से लगातार मन ही मन सारे देवी - देवताओं को मना रही है सुरसतिया । कभी कुल देवी तो कभी बरम बाबा को सुमेर रही है । मनौती मांग रही है झींगना के लिए, कि - “हे बराम बाबा, हमरे झींगना का कार्यक्रम जरूर सुफल करना, नही त ऊ ससुरा चमनलाल निकाल देगा उसे अपनी नाटक मण्डली से ....... ।”
वह खोयी थी मनौतियों के मायाजाल में, कि अचानक झींगना की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई । झींगना कमरे में प्रविष्ट होते चिल्लाया - “सुरसतिया कहां हो ?”
“दिन चढ़ गया हए, जल्दी करो ।”
“काहे की जल्दी ?”
“खाना खिला दो, जाना हए चमनलाल से मिलने ।”
“अच्छा, हांथ - मुंह धोलो, पिढ़िया लगा दिया हए, बईठो लाती हूं ।”
आज बहुत खुश है सुरसतिया । मन ही मन सोच रही है कि झींगना को बिना बताए बह भी जाएगी चुपचाप नौटंकी देखने । उसकी प्रबल इच्छा है, कि वह भी देखे मंच पर जाने के बाद कैसा दिखता है झींगना । लोग कैसे बजाते हैं ताली उसकी हर अदा पर । साथ ही अनेकों देवी - देवताओं से मनौती मांग रही है, मन ही मन कि -
“हे देवी मइया ........ हे भगवान ....... यह पहिला मौका हए, हमरे झींगना को नरवस न होने देना मंच पर ....... ।”
उधर झींगना की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है । पहली बार चढ़ेगा वह मंच पर । दो - चार हजार पब्लिक के सामने कार्यक्रम पेश करेगा वह । कैसे कर पाएगा वह सामना उनका ? कैसे विदा करेगा भीतर बहुत परेशान है वह । उसकी परेशानी उसके चेहरे पर स्पष्ट परिलक्षित हो रही है ।
खाना परोसती हुई पूछ बैठी सुरसतिया - “क्यूं जी, जाड़े में पसीने क्यूं आ रहे ?”
“का बताएं सुरसतिया, बहुत धबड़ाहट हो रही हए ।”
“अरे इतने नरवस तो बियाह की रात भी नही थे, अब क्यंू ?”
“तुम समझती नहीं हो सुरसतियां, यह काम एतना आसान नहीं हए ।”
“हमरे समझ से मुश्किल भी नाही हए ।”
“कुछ इलिम भी हए तुमको नाटक का ?”
“हां, हां, हए बताबे के कवनो जरूरत नाहीं ...... हमरे इस्कूल मा एकबार हुई थी नौटंकी......हम बने थे तारामती.... मास्टर साहेब बहुते खुश हुए थे हमरे रोल से ......पहिला पुरस्कार मिला था हमें -- हां ........।” बड़ी मासूमियत से जबाब दिया सुरसतिया ने झींगना खाना खाते हुए चीख पड़ा अचानक -
“अरे पगली ! इस्कूल का बात कुछ आउर हए आ इस्टेज क बात कुछ आउर ....... जो तुम्हारा काम हए तू कर, हमैं अपना काम करै दे ......।”
“ठीक हए जी, गुस्साते काहे हो ?”
“हम कहां गुस्साते हएं, तुम ही बकबक करती हो ।”
झींगना के मनोभाव को भांपकर खुश हुई सुरसतिया उसे सुखद आश्चर्य हुआ झींगना के दृढ़ विश्वास पर । वह जो चाहती थी वही हुआ, झींगना का भय फुर्र हो गया । उसे खुशी का ठिकाना न रहा, मगर झींगना के सामने वह अपने चेहरे का भाव प्रदर्शित न होने दी । वह चाहती है कि हमेशा के लिए झींगना के मन का भय खतम हो । वह एक अच्छा कलाकार बने, अपने हुनर के बल पर । बडहन लोगन के मजमा लगे । वह भी इतराये अपने सौभाग्य पर ।
अपने आपको सहज रखती हुई बोली - “ठीक हए जी, हम कहां कह रहे हएं कि ई काम हमार हए ....... लेकिन ई बताओ, काहे नरवस हो रहे हो ?अगर ईहे हाल रहा त पब्लिक हूट नहीं कर देगी ?”
झींगना ने झुंझलाते हुए कहा - “नहीं - नहीं, हम नहीं धबड़ा रहे । हर नये काम के पहिले झुंझलाहट त होती ही हए ......।”
सुरसतिया ने विषय बदलते हुए कहा - “चलो जी, बहुते देर हो गयी हए । भगवान का नाम लो आउर जाओ । आउर सुनों, जाते ही पहिले चमन लाल जी के चरण ठीक छूना ?”
झींगना ने सहमति में अपना सिर हिला दिया । सुरसतिया समझाते हुए काफी गम्भीर हो गयी । छलकने लगे उसकी आंखो से आंसू । मगर उन आंसुओ को साड़ी के पल्लू से पोछती हुई धीरे से मुस्कुरायी और झींगना को बिदा करती हुई मन ही मन अनेक देवी- देवताओं का स्मरण कर ली एकवारगी अपने पति की सफलता के लिए ।
जाते हुए झींगना बार - बार पीछे मुड़कर देखता रहा सुरसतिया का । शुभकार्य में जाने से पहले उसका चेहरा देखना शकुन मानता है वह ।
आज सुबह से हीं सुरसतिया अपनी कुल देवी बन्नी गौरैया की पूजा में मशगूल है । मनौतियां मांग रही है पति की कामयाबी के लिए । उसकी इच्छा है कि उसका पति एक महान लोक कलाकार बने भीरवारी ठाकुर की तरह । वाभन टोली के लोगों का गुमान तोड़ना चाहती है वह । उसे बस इसी बात की चीढ़ है कि समाज में उसके भी होने का एहसास क्यों नही है ? लोग डोम - चमार कहकर उसकी विरादरी का उपहास क्यों उड़ाते हैं ? उससे धृणा का भाव क्यों रखते हैं ?
कहती है सुरसतिया - लगातार बखत के थप्पड़ खाने के बाद भी हम नहीं बदले, लेकिन बखत के साथ - साथ ई बड़हन लोग बदल दिहलें हमरे नाम । पहिले अस्पृश्य कहलें, फेर अछूत, बाद में हरिजन आउर अब दलित कहके मजाक उड़ाते हएं । कल कवनो नया नाम जोड़ देंगे हमरे नाम के साथ । अरे ई लोग हमका हमरे काम से पहचान काहे नाहीं करत हएं ।”
कहते - कहते तन आती हैं नसें, बहने लगते हैं लोर बेतरतीब और आंचल में मुंह छिपाकर विफरने लगती हैं वह नारी के धैर्य की टूटती सीमाओं के भीतर आकार ले रही रणचण्डी की तरह ......।
सुरसतिया को बस इसी बात का मलाल है, कि “बड़हन लोग अपने मतलब खातिर करिहें हमार इस्तेमाल आउर मतलब निकलला के बाद ऊहे ढ़ाक्र के तीन पात ....... ।”
खैर, अब उसे भरोसा हो गया है, कि उसका पति झींगना अपने कर्मों से अवश्य उद्धार करेगा उसकी विरादरी का । अपने हुनर से बदल देगा सारी अवधारणाएं समाज की । तोड़ देगा मिथक्र । एक दिन जरूर बनेगा वह बड़ा आदमी ।
सुबह के आठ बजे है, पिछले तीन -धंटों से लगातार मन ही मन सारे देवी - देवताओं को मना रही है सुरसतिया । कभी कुल देवी तो कभी बरम बाबा को सुमेर रही है । मनौती मांग रही है झींगना के लिए, कि - “हे बराम बाबा, हमरे झींगना का कार्यक्रम जरूर सुफल करना, नही त ऊ ससुरा चमनलाल निकाल देगा उसे अपनी नाटक मण्डली से ....... ।”
वह खोयी थी मनौतियों के मायाजाल में, कि अचानक झींगना की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई । झींगना कमरे में प्रविष्ट होते चिल्लाया - “सुरसतिया कहां हो ?”
“दिन चढ़ गया हए, जल्दी करो ।”
“काहे की जल्दी ?”
“खाना खिला दो, जाना हए चमनलाल से मिलने ।”
“अच्छा, हांथ - मुंह धोलो, पिढ़िया लगा दिया हए, बईठो लाती हूं ।”
आज बहुत खुश है सुरसतिया । मन ही मन सोच रही है कि झींगना को बिना बताए बह भी जाएगी चुपचाप नौटंकी देखने । उसकी प्रबल इच्छा है, कि वह भी देखे मंच पर जाने के बाद कैसा दिखता है झींगना । लोग कैसे बजाते हैं ताली उसकी हर अदा पर । साथ ही अनेकों देवी - देवताओं से मनौती मांग रही है, मन ही मन कि -
“हे देवी मइया ........ हे भगवान ....... यह पहिला मौका हए, हमरे झींगना को नरवस न होने देना मंच पर ....... ।”
उधर झींगना की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है । पहली बार चढ़ेगा वह मंच पर । दो - चार हजार पब्लिक के सामने कार्यक्रम पेश करेगा वह । कैसे कर पाएगा वह सामना उनका ? कैसे विदा करेगा भीतर बहुत परेशान है वह । उसकी परेशानी उसके चेहरे पर स्पष्ट परिलक्षित हो रही है ।
खाना परोसती हुई पूछ बैठी सुरसतिया - “क्यूं जी, जाड़े में पसीने क्यूं आ रहे ?”
“का बताएं सुरसतिया, बहुत धबड़ाहट हो रही हए ।”
“अरे इतने नरवस तो बियाह की रात भी नही थे, अब क्यंू ?”
“तुम समझती नहीं हो सुरसतियां, यह काम एतना आसान नहीं हए ।”
“हमरे समझ से मुश्किल भी नाही हए ।”
“कुछ इलिम भी हए तुमको नाटक का ?”
“हां, हां, हए बताबे के कवनो जरूरत नाहीं ...... हमरे इस्कूल मा एकबार हुई थी नौटंकी......हम बने थे तारामती.... मास्टर साहेब बहुते खुश हुए थे हमरे रोल से ......पहिला पुरस्कार मिला था हमें -- हां ........।” बड़ी मासूमियत से जबाब दिया सुरसतिया ने झींगना खाना खाते हुए चीख पड़ा अचानक -
“अरे पगली ! इस्कूल का बात कुछ आउर हए आ इस्टेज क बात कुछ आउर ....... जो तुम्हारा काम हए तू कर, हमैं अपना काम करै दे ......।”
“ठीक हए जी, गुस्साते काहे हो ?”
“हम कहां गुस्साते हएं, तुम ही बकबक करती हो ।”
झींगना के मनोभाव को भांपकर खुश हुई सुरसतिया उसे सुखद आश्चर्य हुआ झींगना के दृढ़ विश्वास पर । वह जो चाहती थी वही हुआ, झींगना का भय फुर्र हो गया । उसे खुशी का ठिकाना न रहा, मगर झींगना के सामने वह अपने चेहरे का भाव प्रदर्शित न होने दी । वह चाहती है कि हमेशा के लिए झींगना के मन का भय खतम हो । वह एक अच्छा कलाकार बने, अपने हुनर के बल पर । बडहन लोगन के मजमा लगे । वह भी इतराये अपने सौभाग्य पर ।
अपने आपको सहज रखती हुई बोली - “ठीक हए जी, हम कहां कह रहे हएं कि ई काम हमार हए ....... लेकिन ई बताओ, काहे नरवस हो रहे हो ?अगर ईहे हाल रहा त पब्लिक हूट नहीं कर देगी ?”
झींगना ने झुंझलाते हुए कहा - “नहीं - नहीं, हम नहीं धबड़ा रहे । हर नये काम के पहिले झुंझलाहट त होती ही हए ......।”
सुरसतिया ने विषय बदलते हुए कहा - “चलो जी, बहुते देर हो गयी हए । भगवान का नाम लो आउर जाओ । आउर सुनों, जाते ही पहिले चमन लाल जी के चरण ठीक छूना ?”
झींगना ने सहमति में अपना सिर हिला दिया । सुरसतिया समझाते हुए काफी गम्भीर हो गयी । छलकने लगे उसकी आंखो से आंसू । मगर उन आंसुओ को साड़ी के पल्लू से पोछती हुई धीरे से मुस्कुरायी और झींगना को बिदा करती हुई मन ही मन अनेक देवी- देवताओं का स्मरण कर ली एकवारगी अपने पति की सफलता के लिए ।
जाते हुए झींगना बार - बार पीछे मुड़कर देखता रहा सुरसतिया का । शुभकार्य में जाने से पहले उसका चेहरा देखना शकुन मानता है वह ।
......क्रमश:.....६
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