(तीन)

जैसे - जैसे समय बीत रहा था, धरिछन पाण्डे़ का गुस्सा परवान चढ़ता जा रहा था । वायें हाथ से धोती का कोर पकड़कर धुटने के ऊपर उठाये तथा दायें हाथ में रूमाल ले नाक को दबाये नेताजी इधर से उधर पैर पटक - पटक कर कोस रहे थे गंगा प्रसाद को ।

‘‘ई ससुरा बड़ा सुस्त है रे कलुआ ।‘‘

‘‘कवन हुजूर ?‘‘

‘‘अरे अपना गंगा प्रसाद और कवन ।’’

लेकिन हुजूर! ऐमें पी.ए.साहब के कवन कसूर ?’’

‘तब केकर कसूर है रे ?’’

‘‘ऊ झींगना कर रहा होगा बदमांसी नेता बनता है अपनी बिरादरी का । पिला रहा होगा जनम घुट्टी पी ए साहब को ।‘‘
‘‘हमको त लगता हए, ससुरा की पैदाईश ीीं खराब हए ।‘‘

‘‘किसकी हुजूर ?‘‘

‘‘अरे झींगना की आउर किसकी -- ।‘‘

‘‘ऊ दोगला न हए हुजूर !् ऐतना गोर चेहरा धप - धप गोंर चेहरा, माथा पर तेज, बानी में सरसती का बास आउर आंख में गजबे आकर्षन, भला डोम - चमारन में मिलता हए का ?‘‘

‘‘हमको भी शक हए ससुरा पर ।‘‘

‘‘शक नाही ं हुजूर, सांच बात हए । ऊ गोवरधनवा कह रहा था, कि झींगना की महतारी तेजू सिंह की रखैल थी। उसी का पाप हए ससुरा ।‘‘

‘‘चुप कर, ई सब बात पब्लिकली नहीं करते, बड़हन जाति की बदनामी होती हए ।‘‘

नेताजी की डांट से कलुआ सकपकाया, नजरें नीची किए दुम हिलाता रहा आगंे - पीछे । खैंनी ठांेककर नेता जी के आगे बढ़ाया ही था, कि झींगना को देख कलुआ चिहुंका, बोला -

‘‘उधर देखिए हुजुर आ गया झीगनवा ।‘‘

‘‘आने दो अभी खबर लेते हैं उसकी ।‘‘

‘‘हुजूर ! हांथ मत उठाइएगा हरिजन एक्ट लग जाएगा।‘‘

‘‘इसीलिए तो मन मसोसकर रह जाते हैं हम ।‘‘

‘‘प्रेम से समझा दीजिएगा हुजूर ।’’ दांत निपोऱते हुए कलुआ ने कहा ।

‘‘ठीक हए आने तो दो -- ।‘‘ नेता जी मन ही मन बड़बड़ाये मगर गुस्सा परवान चढ़ चुका था, झींगना के आते ही फूट पड़ा । झींगना पास आया और झुककर चरण स्पर्श करते हुए कहा -

‘‘पांव लागी बाबा !’’

नेता जी झटके से पीछे हटे और गुस्से में लाल - पीले होते हुए बोले -

‘‘जादा पी लिया हए का रे ! हम हटते जा रहे हएं, तुम सटते जा रहे हो ।‘‘

‘‘हम त पी के होश खोते हॅए बाबा, आप लोग बिना पिए । बस यही फरक हए हममें आउर आपमें ।‘‘

‘‘बहस लड़ाते हो साले ?‘‘

‘‘ बाबा, गाली मत दीजिए हमरा भी स्वाभिमान हए । ठेस पहुंचता है ।‘‘

‘‘तुम साले सर-सोलकन लात के देवता हो, बात से नहीं मान सकते ।‘‘

‘‘देखिए बाबा ! हमें गाली दे दीजिए मंजूर लेकिन हमरी विरादरी को गाली देंगे तो अनर्थ हो जाएगा ।‘‘

बात बिगड़ती देख गंगा प्रसाद झीगंना को वहां से हटाकर दूर ले गया और एकांत में समझाते हुए कहा, कि -
‘‘तुमको अकल नहीं हए का रे झींगना, बड़े लोगों से अइसहीं बात किया जाता हए ?‘‘

‘‘पी ए साहब आपही बताइए, हमरे सटने से अछूत हो जाएंगे का ?‘‘

‘‘समझा करो झींगना ! तुम नशे में हो इसलिए समझ में नहीं आ रहा तुमको । अरे ऊ मालिक हएं और हम नौकर, उनसे हमारी कहसी बराबरी ?‘‘

‘‘झींगना को नशा नहीं चढ़ता पी.ए. साहब ! गलत फहमी में मत रहिएगा । दिल के सच्चे हएं हम, सांच बात बोलते हएं दुमुंही बात नहीं करते ।‘‘

‘‘खैर, छाड़ो इन बातों को, जाओ जाके माफी मांग लो नेता जी से, गेंग मत बझाओ ।’’

उधर कलुआ नेताजी का कान भर रहा था कि - ‘‘हजूर, मुंहफट हए झींगना, कुछ भी बोल देता है, लेकिन आप संयम से काम लीजिए । होरी का त्योहार है मेहमान आने वाले है, बाद में देख लेंगे ।

गंगा प्रंसाद के समझाने - बुझाने से अपनी गलती का एहसास हुआ झींगना को । कर जोड़ते हुए नेता जी के पास आया और बोला-

‘‘हमका माफ कर दो बाबा ! चमड़े की जुबान थी फिसल गयी ।‘‘

‘‘तुम बहुत बकबकाते हो झींगना । बड़- छोट का लिहाज नहीं रखते । अब से ख्याल रखना । समझ गये न हमरी बात ?‘‘ नेता जी ने अकड़ते हुए कहा ।

‘‘हां बाबा ! समझहीं खातिर त हम पैदा हुए हएं हरिजन बस्ती में आउर आप समझावे खातिर रामन टोली मे ......।‘‘

झींगना के व्यंग्य - वाण ने फिर एकबार आहत किया नेता जी को, मगर इसबार वह मुस्कुराके टाल गये । मन में झीगना के प्रति दुराग्रह चरम पर पहुंुच गया । उसकी साफगोई से काठ मार गया उसे । एक टक निहारता रहा झींगना को भीतर ही भीतर अपमानित महसूस कर रहे नेता जी ने एक कुटिल मुस्कान बिखेरी और प्यार से पुचकारते हुए कहा -

‘‘झींगना तुम्हरे सटने से हमें छूत क्यों लगेगी ? हम तो जन - प्रतिनिधि हएं, जनता के सेवक हएं । जात - पात नहीं मानते हम । हमरे लिए त तुम सब तुलसी के पत्ते के समान हो, क्या छोटा - क्या बड़ा ?‘‘

तभी गंगा प्रसाद बीच में टपकते हुए बोल पड़ा - ‘‘झींगना, चलो गुस्सा थूक दो । आज फगुआ के दिन किचकिच काहे करते हो ? नेता जी से त्यौहारी लो और खूब होरी खेलो ।‘‘

‘‘ठीक हए पी ए साहब ! लेकिन दिल को छूने वाली बात आप लोग दुबारा मत करिएगा, हां -- ।‘‘

इतना कहकर मन ही मन बुदबुदाते हुए, कि “धोबिन रजरनिया को कोरा में बइठाके चुम्मा लेते हएं छूत नहीं लगता है, हमरे सटने से छूत लगता है -- ।” वहां से चला गया और कुत्ते को फेंकने की जुगत करने लगा । इधर नेताजी झींगना के प्रति अपने दुराग्रह को मन ही मन हवा देते और फन कुचलने की योजना में मशगूल हो गये ।

गंगा प्रसाद भले ही पी.ए. है नेता जी का, मगर नेता जी की प्रवृति से भीतर ही भीतर दुःखी है । आज का यह प्रसंग उसे अमानवीय लग रहा है, वह सोच रहा है, कि “आजादी के वर्षों बाद भी दलितों के प्रति सवर्णों की अवधारणाएं नहीं बदली, बदला है तो केवल धृणा करने का तरीका । पहले खुलेआम अछूत कहकर समाज से तिरस्कृत किया जाता था अब उन्हें वोट बैंक के लिए तिरस्कृत होने से बचाने का स्वांग रचा जाता है बस । बदले जमाने की बदली हुई तस्वीर यही है, जिसके फ्रेम के पीछे है मानव का मनो विकार और आगे सब्जबाग । सामंती व्यवस्था के इन पैरोकारो को यह नहीं मालूम कि जातिगत धृणा उन्हें धीरे - धीरे मानवीय मूल्यों से विरत करती जा रही है, इर्ष्या को जन्म दे रही है और निन्दा का पात्र बना रही हैं ।


घृणा व्यक्ति करता हैं व्यक्ति से तो बड़ी अतिश्योक्ति लगती है । एक तरफ जहां हम विकसित होने का दम्भ भरते हैं, वहीं दूसरी तरफ सदियों से चली आ रही दकियानूसी प्रवृति का परित्याग करने से कतराते भी हैं । सभ्यता का ढ़ोल पीटने वाला यह सभ्य समाज सिर्फ जिह्वा की शोभा बढ़ाने के लिए बार - बार सार्वजनिक तौर पर अंत्योदय का उच्चारण करता है । अंगीकार करने का सपना भी देखता है मगर दिल से नहीं दिमाग से । बस्तुतः जातीय धृणा राजनीति के धरातल पर उपजी हुई वह घास है जिसे नेता चखे तो अमृत, जनता चखे तो विष -- । कब होगा अन्त्योदय ? निश्चय ही समाज के लिए एक जटिल प्रश्न है यह -- ।‘‘


अचानक नेता जी ने गंगा प्रसाद को झकझोरा और कहा “का रे गंगवा ! गहरे सोच में पड़ गया हए का ? हम समझ रहे हएं तुमको अपने मालिक का अपमान बर्दाश्त नही हुआ हए इसीलिए परेशान हो --- ।”

“जी, जी हुजूर !”

“घबराओ मत गंगा प्रसाद, इसकी हेकड़ी निकालेंगे हम एक दिन -- ।”

“जी, जी हुजूर !” नेताजी के हां में हां मिलाते परेशान गंगा प्रसाद ने पसीना पोछते हुए कहा ।


........क्रमश: ....४

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