(सात)


सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी का जानकी मंदिर । बिजली के झालरों से जगमग । दूर - दूरतक रंग - बिरंगी रोशनी और उमड़ता - धुमड़ता जन - सैलाब । मंदिर के ईर्द - गिर्द दो - तीन कि0 मी0 के दायरे में दुर्लभ पशुओं का मेला, जिसमें मुख्यतः बैल, हाथी, धोड़े आदि । मंदिर और गोशाला के बीच का भाग सर्कस, जमपुरी नाटक और तरह - तरह की सुस्सजित दूकानों से पटा हुआ कहीं वाटर किंगडम तो कहीं झूले । कहीं प्रदर्शनी तो कहीं सांस्कृतिक उत्सव । कहीं लोकगायन तो कहीं कठपूतली नृत्य । कहीं मदारी तो कहीं नट। सबकुछ अजीबोगरीब और कतुहल पूर्ण -- ।


सुर - सरस्वती - संस्कृति की त्रिवेेणी प्रवाहित करते इस मेले को मैथिली, भोजपुरी और बज्जिका संस्कृति का संगमन माना जाता है । सोनपुर का हरिहर क्षेत्र और बलिया का ददरी मेला जैसे अपने गौरव शाली अतीत को अपने अंतर में समेटते हुए उत्कृष्ट सांस्कृतिक विरासत का बोध कराता हैं, वैसे ही सीतामढ़ी का यह विवाह पंचमी मेला भी । कहते हैं राम - सीता के पवित्र सांस्कृतिक मिलन को समर्पित यह मेला अपनी पवित्रता व सात्विकता के लिए विख्यात है ।


खैर छोड़िए यह सब, आइए चलते हैं चमन लाल की नौटंकी के तरफ, जहां औरत, बूढ़े, बच्चे और नव जवान सभी खिंचे चले जा रहे हैं । रात के आठ बजे हैं कुछ ही देर में शुरू होगा नाटक और होगी झींगना की अग्नि परिक्षा ।

आज का शो हाउस फूल हो चुका है, क्योंकि झींगना को विज्ञापन में बढ़ा - चढ़ाके पेश किया है चमनलाल ने । उमड़ते जन सैलाब को देखकर काफी खुश है चमनलाल । बार - बार मूंछों पर ताव दे - देकर गर्व से सीना फूला रहा है वह, पूरी हिदायत के साथ नाटक के पात्रों को समझा रहा है । उसे इस बात की बहुत खुशी है, कि आजतक किसी भी मेला में पहले दिन टिकटों की ऐसी बिक्री नही हुई । एक ही दिन में पूरा पैसा वसूल, बाकी के शो बोनस के रूप में ।

रात के साढ़े आठ बज चुके हैं । शो शुरू होने की धोषणा हो चुकी है । पर्दा उठता है, सामने माइक पर सुंचालक के रूप में अवतरित होता है गुल्टेनवा और कहता है -

“साहेबान, मेहरबान !

हम शायरों की शायरी के कद्रदान !!

गुस्ताखी मुआफ हो हुजूर, क्योंकि पहली दफा यह नाचीज अपनी शायरी और अपने बुजुर्ग शायर दोस्तों का राजफाश करने की गुस्ताखी कर रहा है । वैसे मैं यह बाखुबी जानता हू कि इस खाकसार की यह शेखी कई लोगों को कतई बर्दाश्त नहीं होंगी वे चुल्लूभर पानी में डूब मरेंगे और कुछ जुनून में आकर मेरे बेशकिमती जान के ग्राहक बन जाएंगे । फिर भी, जनाब, मुझे किसी भी हादसे की परवाह नहीं है । सो, साहेबान ! आज मैं जो कुछ भी वयां करने जा रहा हूं - गीता, कुरान और बाइबिल को हाजिर - नाजिर मानकर कसम खाते हुए सच बयां कर रहा हूँ । तो, आइए सबसे पहले शुरूआत करते हैं साहित्य के सरगना, अरे राम - राम कीड़े पड़े मेरे मुंह में मैंने यह क्या कह दिया ? मेरा मतलब है साहित्य के सर्जक अपने गुरूदेव यानी महाकवि मुंहफट से ।

आप मानें या न मानें मगर यह सौ फीसदी सच है, कि हमारे शहर के सबसे नायाब चीज हैं - हमारे महाकवि मुंहफट । इस शहर में आकर जिस किसी ने भी महाकवि मुुंहफट साहब के दर्शन नहीं किए, उनकी नवरस से सराबोर कविताओं का रसास्वादन नहीं किया तो समझो उसका जीवन सार्थक नही हुआ । जी हां जनाब ! सच कह रहा हूं, तो इस शहर के जर्रे - जर्रे से पूछ लीजिए हमारे महाकवि मुंुहफट साहब की निराली शान की अनोखी दास्तान।

खैर छोड़िए जनाब ! लोगों से क्या पूछना, चलिए चलते हैं महाकवि मुंहफट साहब के पास उन्हीं से पूछते हैं उनकी कामयाबी का राज- ।”


पर्दा उठता है, इधर - इधर बिखरे पड़े हैं कागजों के टूकड़े । लाइब्र्रेरीनुमा कमरे में किताबों के ंढ़ेर के बीच खुश्मिजाज महाकबि जी पान चबाते दिखायी देते हैं । उन्होंने ईशारे से अखबार के संवाददाता को अपने पास बुलाया और कहा - “अजी आइए पत्रकार साहब ! शरमाइए मत, अपना ही घर है तशरीफ रखिए ।”

“जी शुक्रिया ।” संवाददाता ने बैठते हुए कहा, फिर मुंहफट साहब के सामने माईक ले जाकर बाारी - बारी से प्रश्न पूछने लगा -

“आपका नाम ?”

“मुंुहफट ।”

“आपका नाम मुंुहफट क्यों पड़ा, मुंह तो सबके फटे होते हैं ?”

“जब मैं पैदा हुआ, तो मेरी फटी हुई आबाज मेरे वालिद साहब को अच्छी लगती थी । जब थोड़ा बड़ा हुआ शेरो - शायरी करने लगा । हमारे मुंह में बात रूकती ही नहीं थी, शेर बनकर फट से बाहर आ जाती थी । इसीलिए लोग हमें मुंहफट कहने लगे ।”

“आपने हर विषय पर पुस्तकें लिखी है । कैसे किया यह सब आपने ?”

“दिमाग से -- ।”

“वो तो सभी करते हैं ।”

“चार किताबों का मिलाकर एक किताब बनाते हैं सभी ?”

“नहीं -- ।”

“मैं बनाता हूं । है न दिमाग का कमाल ?”

“तो क्या आपमें मौलिकता नहीं है ?”

“आज तक किसी ने पकड़ा क्या ?”

“नहीं ”

“तो फिर मौलिक है । चक्कर खा गये न जनाब !”

“अभी आपकी कौन सी किताब आने वाली है ?”

“जवांमर्दी के नुस्खे ।”

“यह तो साहित्यिक किताब नहीं लगती ?”

“लगेगी भी कैसे ? मेरी आत्मकथा है जनाब ?”

“इस किताब की क्या विशेषता है ?”

“इसमें हमारे एकाकी जीवन और जवांमर्दी के किस्से हैं ।”

“तब तो मजेदार किताब होगी ?”

“अरे पत्रकार साहब ! मजेदार नहीं मसालेदार बिल्कुल मस्तराम की किताबों की तरह ।”

“आज भी तो आप एकाकी जीवन ही जी रहे हैं, क्या ?”

“सही फरमाया आपने।”

“आपके एकाकी जीवन का राज क्या है ?”

“जी, हमारा इस असार - संसार में एक है हमारी प्राणप्रिया जीवन - संगिनी चन्द्रमुखी । इसके अलावा कोई नहीं । है न एकाकी जीवन ?”

“मगर आपकी तीन सालियां भी तो है ?”

“हां है, मगर -- ।”

“मगर क्या ?”

“ये अन्दर की बात है ।”

“आपकी उम्र ?”

“तकरीबन पच्चास वर्ष ।”

“फिर जवांमर्दी कैसी ?”

“सठिया गये हैं क्या पत्रकार साहब ! कौन कहता है मैं जवांमर्द नहीं ? अरे साहब ! हमारे उम्र पर जाईए, जब दिल हो जवान तो ससुरे उम्र का बीच में क्या काम ।”

“अपनी जावांमर्दी के बारे में विस्तार से बर्ताइए ।”

“अब आप कहेंगे, मेरा मोटा थुलथुल शरीर है । जनाब ! हमारे मोटे थुल थुल शरीर पर भी मत जाइए । जवांमर्दी में शरीर का मोटापा कोई माने - मतलब नहीं रखता । अरे साहब । शरीर का मोटापा अलग चीज है और जवांमर्दी अलग चीज । अगर जवांमर्द नहीं होते हम तो एक साथ चार - चार पतिब्रता पत्नियों के एकलौते पति कैसे बने रहते ?”

“मगर मुंहफट साहब, आपकी जवानी दिखती नहीं ।”

“दिखेगी कैसे ? अपनी जवांमर्दी पर एक शेर अर्ज कर रहा हूँ , मुलाहिजा फरमाइएगा -- ।”

“जी इरशाद ।”

“हां गौर फरमाइए, अर्ज किया है -

चंाद को अपनी जुन्हाई का नहीं एहसास, लेकिन -
हमको अपनी इस जवानी का बहुत उनमान है ।।”

“आप अपनी साहित्य साधना के बारे में कुछ बताएं ।”

“साहित्य साधना के बारे में हम क्या बताएं आपको ? हमने अबतक इतना कुछ लिख लिया है, जितना कि महाप्राण निराला ने अपनी पूरी जिन्दगी में नहीं लिखा होगा ।”

“ये क्या कह रहे हैं आप ?”

“सही कह रहा हूं । मेरी कृतियां पुस्तका कार रूप में कितनी छप चुकी हैं, इसकी सही जानकारी मुझे भी नही, लेकिन इतना अवश्य बता सकता हूँ कि प्रायः प्रत्येक वर्ष बसंत पंचमी को मैं अपनी एक पुस्तक का विमोचन स्वयं के कर कमलों से करता हूं ।”

“यानी आप अपनी पुस्तकों के स्वयं कवि, प्रकाशक, विमोचक कैसे हो सकते हैं ?”

“हां, बिल्कुल ।”

“एक ही व्यक्ति कवि, आलोचक, प्रकाशक और विमोचक कैसे हो सकता है ?”

“अरे आप चौंके क्यों ? क्या कोई साहित्यकार अपनी रचनाओं का प्रकाशक, आलोचक, विमोचक नहीं हो सकता ? हो सकता है जनाब, बिल्कुल हो सकता है । जब एक ही व्यक्ति किसी - किसी फिल्म की कथा, पटकथा, गीत, संवाद लिख सकता है और वही व्यक्ति इरदर्शन पर अपनी तारीफ में कसीदे गढ़ सकता है, तो मैं क्यों नहीं ?”

“यानी अल्लाह मेहरवान तो गदहा पहलवान ?”

“सही फरमाया आपने ।”

“इस उम्र में आप स्वस्थ हैं या कोई बीमारी भी है आपको ?”

“ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? अभिप्राय क्या हैं पूछने का ?”

“जी मैं ऐसा इसलिए पूछ रहा हूं कि आप राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित होने वाले हैं ।”

“अच्छा -- अच्छा -- । नहीं - नहीं मुझे कोई बीमारी नहीं ।”

“कोई तो होगी - सर्दी, जुकाम, खांसी -- ?”

“नहीं - नहीं यह सब बीमारी मुझे नहीं है, केवल एक के सिवा, वह भी जानलेवा।”

“जानलेबा ?”

“हां जनाब ! कभी - कभी दौरा पड़ता है मुझे ।”

“दौरा पड़ता है ? ये क्या कह रहे हैं आप ?”

“चौंक गये न जनाब ! ऐसा - वैसा दौरा नहीं कविता सुनाने का दौरा । जब मझपर कविता सुनाने का जुनून सवार होता हैं तो मैं किसी भी ऐरे - गैरे, नत्थुखैरे को पकड़कर शुरू हो जाता हूं । मगर जनाब, मानना पड़ेगा मेरी ईमानदारी को । मैं किसी को मुफ्त में कविताएं नहीं सुनाता, पूरा का पूरा मुआवजा देता हूँ ।”

“मुआवजा ?”

“हां यह अलग बात है कि मेरी कविता सुनते - सुनते वह सख्श इतना नर्वस हो जाता है कि बख्शीश में मिले सारे रूपये उसे किसी डॉक्टर को देने पड़ जाते होंगे । बेचारा -- ।”

“ऐसा दौरा कब पड़ता है आपको ?”

“आपने जब उकसा दिया, तो मुझे दौरे का अब धीरे - धीरे एहसास हो रहा है --- ।”

“अरे बाप रे ! अब मुझे इजाजत दीजिए ।”

“अरे ऐसे कैसे चले जाएंगे आप, बिना कबिता सुने ।”

“फिर कभी ।”

“अरे नहीं, सुनते जाइए आज ।”

पत्रकार जान बचाके भागने लगता है और महाकवि जी पीछे - पीछे । तभी पर्दा गिरता है । नाटक का अगला भाग शुरू हो इससे पहले डांस आइटम के लिए मंच पर रम्भा और छक्कन का आगमन होता है ।

पण्डाल दर्शकों से खचाखच भरा है । लोग झींगना की अदाकारी की तारीफ कर रहे हैं एक - दूसरे से हर कोई रोमांचित हो रहा है उसकी अदाओं पर । महज चंद मिनटों में बड़ा कलाकार बन गया है वह । चहेता बन गया है सबका । कानाफूसी हो रही है पाण्डाल के भीतर । झींगना की प्रशंसा के पूल बांधे जा रहे हैं । हर कोई उसकी अदाकारी का दीवाना हो रहा है ।

सुरसतिया भी आयी है नौटंकी देखने । लम्बा घूंघट काढ़कर बैठी है वह, ताकि कोई पहचान न ले कि वह झींगना की मेहरारू है । बहुत खुश है सुरसतिया यह देखकर कि देखते - देखते कैसे उसका मरद सबकी आंखों का तारा बन गया है । अब तो उसके पास भी बंगला होगा -- गाड़ी होगी --- पैसे होंगे -- रूपये होंगे -- ढ़ेर सारे --- फिर क्या करेगी वह इतने सारे रूपयों का -- अचानक सोचकर परेशान हो गयी सुरसतिया। उसके जेहन में एक योजना बनी । वह मन ही मन मुंस्कुरायी । वह रोमांचित हो गयी अचानक स्वप्न को साकार होते देखकर । मन ही मन ताने - बाने बुनती सुरसतिया सोचने लगी कि अब उसके सूअरों के लिए बन जाएंगे पक्के खोप । विरादरी में नाक ऊंची हो जाएगी उसकी । वह भी इतरायेगी अपने भाग्य पर । कुल देवी बन्नी - गौरैया और बरहम बाबा का मंदिर बनवाएगी । बामन टोली के लोग अब उसे भी इज्जतभरी निगाहों से देखेंगे । मन ही मन ढूंढने लगी वह झींगना में स्वयं और अपने गांव का भविष्य।

मंच पर संगीत का स्वर गुंजने से अचानक उसका स्वप्न टूटा और आ गयी वह धम्म से यथार्थ के धरातल पर ।
मंच से लोकगीत का स्वर फुट रहा है, रम्भा और छक्कन अपने सहयोगियों के साथ नृत्य में निमग्न है । लोकगीत की मधुरता वातावरण में मिठास घोल रही है । ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने वातावरण में शहद घोल दिया हो । श्रृंगार , सोंदर्य, प्रेम में सगे - पने लोकगीत और उसके साथ गंवई नृत्य का संगमन हो तो दर्शकों के लिए सोने पे सुहाग । मजबूर हो रहे सभी नृत्य पर थिरकने के लिए, गाने के बोल ही कुछ ऐसे -
“गाजीपुर में लहंगा लिहलें

जमनिया में हार ।

चोली खातिर चहुंप गइलें

बलिया बजार ।

कि काशी में नक्कासी करवाइके

धुंधटा उठाइके / कहलें लजाइके

दिखा द ऽ तनी चान गोरिया -- ।”

रात आधी हो चुकी है । कार्यक्रम अपने शबाब पर है । गायन और नृत्य के बाद अगले कार्यक्रम में झींगना की योग्यता की अग्नि परीक्षा होनी है, किन्तु कार्यक्रम का आगाज होने से पहले अचानक रात की निस्तब्धता को चीरती, मानव अस्तित्व को धूमिल करती एक आवाज गंूजी, एक धमाका हुआ। फिर आसपास के बातावरण में धुआं ही धुआ और देखते ही देखते पुनः एक धमाका हुआ और डूब गया सारा शहर दहशत में एकबारगी । बम के इस धमाके ने बना दिया गमगीन माहौल को । भगदड़ के बीच गिरते - पड़ते लोग । एक के ऊपर एक परेशान और अचम्भित लोग बेहद असमंजस की स्थिति में । सबके - सब अस्त - व्यस्त । कहीं लाशों का अम्बार तो कही पसरा हुआ सन्नाटा । तब्दील हो गया पूरा का पूरा क्षेत्र रेगिस्तान की वादियों में । हर कोई जहां - तहां दुबके हुए खामोश । गूंज केवल और केवल सायरनवाली गाड़ियों की प्रशासन द्वारा कर्फ्यू की धोषणा । बाहर निकलना मुश्किल और खतरनाक ।

झींगना छुपा है पर्दे की ओट में, बिल्कुल ठस्स -- कि जैसे सांप संूघ गया हो उसे । अनायास दिलावर मियां के चिखने - चिल्लाने की आवाज हुई । वह जबतक भाग कर गया दिलावर मियां के पास दिलावर मियां अल्लाह को प्यारे हो चुके थे । उनका इंतकाल हो चुका था । झींगना दिलावर मियां को अपने आलिंगन में लिए फूट - फुटकर रोने लगा । उसी समय वामन टोली के कुछ मनचले नवयुवक जो दंगे की आग में राजनीति की रोटी सेंक रहे थे चुहलकदमी करते हुए आ धमके । झींगना के आलिंगन में दिलावर मियां को मरा हुआ देख चिल्लाने लगे बेतहाशा - “अरे, इसने तो मियां को मार दिया । यह दंगाई है, इसे पकड़ो, पुलिस को बुलाओ -- ।”

झींगना अपनी बात कहे इससे पहले वहां पुलिस पहुंच गयी और झींगना को अपनी गिरफ्त में ले लिया । पुलिसीया गाली और ड़डों की चोट के आगे झींगना की सफाई कुंद पड़ गयी । वह घिघिया रहा था और पुलिस उसे बड़ी बेरहमी से धसीट रही थी ।

आज उसकी सुनने वाला कोई नहीं --- वह विल्कुल अकेला और असहाय - ।

.........क्रमश:.....८

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