(आठ)
नगर थाना के बन्दीगृह के एक कोने में बैठा सुबक रहा झींगना । समझ नहीं पा रहा वह, कि कल रात हुए उस हिंदू - मुस्लिम राइट से उसका क्या लेना - देना ? वह तो कलाकार है, लोक - गायक है, दंगाई नहीं, वह भला किसी का खून क्यों करेगा ? जहां तक दिलावर मियां का प्रश्न है, वह तो नेक बंदा था उसकी मण्डली का । दिल का दौरा पड़ा अचानक और मर गया । लोग कहते हैं मैंने गला दबा दिया । कोई अपनी मौत मरे तो खून का इल्जाम मेरे सर क्यों ? अनायास ही चीखने - चिल्लाने लगा झींगना - ”हम खून नहीं किए दरोगा जी, वह तो अपनी मौत मरा है -- !” देने लगा चिल्ला - चिल्लाकर अपनी बेगुनाही की दलीलें, मगर उसकी सुनता कौन ?
दारोगा गुर्राया और लाठी जमीन पर फटकते हुए कहा -
“अबे स्साले चुप्प ! इतना मारूंगा कि बैठे - बैठे पोटी कर दोगे --- तुम ससुर जितने सीधे दिखते हो, उतने हो नहीं -- तुम्ही ने मारा है दिलावर को गला दबाकर -- पहले तुम्हारे ऊपर रासुका लगायेगे हम, फिर दफा तीन सोै दो -- ।”
झींगना चुप हो गया, किन्तु अन्तरात्मा में आए तूफान सुनामी लहरों की मानिंद अजीबो गरीब हलचल पैदा कर रहे थे । आशा निराशा में बदल चुकी थी । जार - जार रोते हुए झींेगना के होंठो से फूट रहे शब्द वेदना के -
“कइसन हए करेज तोर,
आंखि नही तनिका लोर,
दरदिया से रह - रह टूटे
बदनवा हे दरोगा जी !
खुल - खुल के गावत रहली,
नेहिया लुटावत रहली,
मन के ई सोन - चिरेैया -
मन के समझावत रहली
कि एक दिन साकार होई
सपनवा है दरोगा जी !”
इल्जाम से बरी होने के सारे प्रयास निरर्थक साबित हो रहे हैं झींगना के लिए । यातनाओं के समंदर में गोते लगा रहा है वह और सोच रहा है कि कैसे तपेदिक हो गया है सच को । लकवा मार गया है बिचारों को कोई नहीं सुन रहा उसकी फरियाद । उसे अपराधी समझकर हर कोई धृणा का भाव रखने लगा है । बिल्कुल अकेला पड़ गया है वह इस जंग में । सर्द मौसम में भी तर - बतर है वह पसीने से । उसके माथे पर परेशानी की स्पष्ट लकीरें दिखाई दे रही हैं।
बेहद आत्म मंथन के दौर से गुजरते हुए झींगना के सामने अचानक उम्मीद की एक किरन बनकर प्रकट प्रकट हुई सुरसतिया ।
हवलदार ने रास्ता रोकते हुए पूछा -”ऐ-- ऐ -- कौन है तू ! कहां घुसी चली आ रही है ?”
“खाना लायी हूं झींगना के लिए ।” सुरसतिया ने कहा ।
“तू कौन लगती है री उसकी ?” हवलदार ने पूछा ।
“मेहरारू !” बड़ी मासूमियत से उत्तर दी सुरसतिया ने ।
“बड़ी सुघड़ है री तू !”
हवलदार ने मुस्कुराते हुए धीरे से कहा । सुरसतिया सकपकायी, सिमट गयी अपने - आप में, धीरे से बोली -
“का मतलब हवलदार साहेब ?”
“हमरे कहे का मतलब ई है कि बड़ा खुशनसीब है झींगना, जो तोहरी जैसी मेहरारू मिली है री -- !” बात बदलते हुए हवलदार ने कहा । सुरसतिया अपना तेवर बदले और कुछ कहे इससे पहले दारोगा उदय प्रताप सिंह का आगमन हुआ । दारोगा ने हवलदार से पूछा -
”ई कौन हे रे ! कहां से पकड़ लाया ?”
“साहब जी ! झींगना की मेहरारू है, खाना लायी है अपने मरद के लिए ।” हवलदार ने कहा ।
दारोगा उदय प्रताप सुरसतिया की ओर सुखातिब हुआ और आंखें दिखाते हुए कहा -
“ठीक ..... है ..... ठीक है, खिलादे उसे ...फिर तो जेल की ही रोटी खानी है आज के बाद ..... ।”
जेल की बात सुनकर सुरसतिया की आंखों से बरबस आंसू छलक पड़े, मानो दुःख का पहाड़ टूट पड़ा हो । माथा नीची किए भारी मन मे एक - एक कदम बढ़ाती हुई झींगना के पास पहुंची और खाना परोसती हुई सिसकने लगी । झींगना ने ढ़ांढ़स बंधाया और कहा -
“काहे रोती है री पगली ! हमें कुछ नहीं होगा .... . ।”
“भगवान करे कुछ न हो, हमें तो डर लग रहा है । ”
“हम मर्डर थोड़े न किए हएं जो हमको सजा होगी ।”
“लकिन हमारी सुनेगा कवन ?”
“जज साहेब सुनेंगे ।”
“वह भी बिक गये तब ?”
“तब जो होगा देखा जाएगा।”
“नहीं, नहीं, ऐसा नहीं कहते, शुभ - शुभ बोलिए जी !”
“गला बझ रहा हए, जरा पानी देओ ।”
“हई लेओ ।”
सुरसतिया पानी का ग्लास बढ़ाती हुई साड़ी के पल्लू से बार - बार आंसू पोंछ रही है । झींगना को काफी भूख लगी थी सो वह जल्दी - जल्दी खाना खाये जा रहा है । सिसकियां लेती सुरसतिया पुनः बोली -
“काल्ह नेता जी अपने घर आये थे ।”
“तोहरे बचावे खातिर ...... ।”
“हमको बचाने के लिए ! वह तो दर कमीना है । जात - पात - धरम के नाम पर उकसाता रहता हए गांव वालों को ....... हमको तो महसूस हो रहा हए कि दंगा कराने में ऊहें ससुरा का हाथ हए ...... जानती हो सुरसतिया ! ऊ आदमी़ की खाल में मेंड़िया हए ।”
सुरसतिया बीच में ही टोकती हुई बोली - “हमरी बतिया तो सुन लेओ ........।”
“हां, हां बताओ का कह रही हो ?” झींगना बोला । सुरसतिया टिफिन का बर्तन सहेजती हुई बोली - “नेता जी कह रहे थे कि कुछ नहीं होगा झींगना को, हम बचा लेंगे, लेकिन एक शरत हए ...... ।”
“कइसन शरत ?” झींगना ने टोकते हुए कहा ।
“शरत ई हए कि झींगना को कुछ दिन के लिए गांव छोड़ना पड़ेगा.... ।”
गांव छोड़ने की बात सुनते ही आग बबूला हो गया झींगना, लगा चिल्लाने - ”नहीं मानते हम उसकी शरत, हां !”
“धीरे - धीरे बोलो, थाना हए घर नहीं ।” समझाती हुई बोली सुरसतिया ।
झींगना ने कहा - “ठीक हए सुनाओ , मगर हमारी बात सुनो! हमके फंसाबे में ऊ नेतवा के बड़हन भूमिका हए सुरसतिया । ऊ दिन याद करो जब हम पंचाईत में उठाये रहे नेतवा के खिलाफ आवाज कि लखनदेई नदी पर पुल बनाबे में ससुर कईसे डकार गये सरकारी पईसा, बहुत हंगामा हुआ था उसदिन हमरे इस्टेट मेंट पर । ताक में था ससुर बहुत दिनों से, सो फंसा दिया हमको हमरे ऊपर झूठा मुकदमा लादकर, आउर अब कहता हए गांव छोड़ दो । बहुत धूर्त हए नेतावा, ऊ तो चाह ही रहा हए कि उसके रास्ते का कांटा निकल जाए ..... हम नहीं मानेंगे उसकी शरत ........ ।”
अनायास ही आंखें भर आयीं सुरसतिया की, सुबकती हुई बोली -
“हम बचन देई दिये हएं, तोहके हमरी कसम ना नाही कहो तो अच्छा होगा । उम्रकैद आउर फांसी से तो अच्छा हए न कुछ दिन के लिए गांव छोड़ देना । फोन आ ही रहा होगा नेता जी का ...... ।”
झींगना की आंखों से टप - टप गिरने लगे आंसू, वह अपनी व्यथा को नियंत्रित नहीं रख पाया और बोला -
“जल्दवाजी में ई कइसन शरत मान ली हो सुरसतिया । हमें मुकावला करना चाहिए था, लड़ना चाहिए था अन्याय के खिलाफ आखिरी दम तक । सांच को आंच कईसा ?”
हाथ बढ़ाकर झींगना का मुंह बन्द करती हुई बोली सुरसतिया - “चुप रहो जी ! कभी सोचे हएं आप कि हमरे मुन्ना जे पेट में हए जब जनमेगा तो लोग चिढ़ाएंगे दंगाई का बेटा कहकर कइसे ? हमरे खातिर ना सही ई मुन्ना का ख्याल करो कम से कम ........।”
झीगंना भावुक हो गया सुरसतिया की बात सुनकर । उसके कंधे पर सिर टिकाकर फफक पड़ा और सिसकते हुए बोला -
“जइसन तोहार इच्छा ।”
यह सुनकर सुरसतिया के चहरे पर खुशाी की एक हल्की सी लालिमा दौड़ गयी । म नही मन मुस्कुराई । सुखद एहसास हुआ एक बारगी । बार - बार तिरछी निगाहें डालकर फोन की ओर देखती और धंटी बनजे का इंतजार करती । झींगना से बातें करती हुई बीच - बीच में यकवयक अगुता के बुदबुदाती -
“ई मुआ, फोन काहे नाही बजत हए ?”
फिर उसे कुछ याद आयी, उसने झींगना से कहा - “सुनो जी ! ऊ सदर अस्पताल के सर्जन साहेब नही हएं, जे एक महीना पहिले ट्रांसफर होके हाजीपुर से आए हएं ........ ।”
“कवन, चनरिका डॉक्टर ?”
“हां, हां ऊहे ।”
“का कह रहे थे ?”
“कह रहे थे, कि भींगना से कहना ऊ गोरखपुर चला जाए हमरी बहिन के पास, कहीं हजार - पांच सौ की नौकरी दिलवा देगी या अपने पास ही रख लेगी अपने क्लीनिक में ।”
“आउर का कह रहे थे डॉक्टर साहेब ?”
“कह रहे थे, कि जइसे ही मामला रफा - दफा होगा, हम झींगना को खबर कर देंगे, ऊ लौट आएगा गांव ।”
“कवनो पता - ठिकाना ?”
“हां, हां, ई पुर्जा में लिखकर दिए हएं, रख लेओ जेबी में ठीक से--।”
“हां दो, परदेस में काम आवेगा ।”
यकवयक फोन की धंटी बजी, रिसीवर उठाते ही दारोगा उदय प्रताप की आवाज कुंद पड़ गयी ।
“जय हिंद साहेब !”
“ठीक साहेब !”
“जैसा आप कहें साहेब !”
“आपका हुकुम सर आंखों पर साहेब !”
“नहीं, नहीं, कोई परेशानी नहीं साहेब !”
“ठीक साहेब !”
“हां, समझ गये साहेब !”
“अब उसको बुझाये तब न ?”
“हम भी समझाते हएं साहेब !”
“का कहें, उसकी मेहरारू से बात हो गयी है का ?”
“तब त मामला फिट समझिए साहेब !”
“बहुत देर से समझा रही है अपने मरद को साहेब !”
“एक दम शक नहीं होगा साहेब !”
“आप इत्मिनान रहिए साहेब !”
“ठीक साहेब !”
“जय हिंद साहेब !”
फोन रखते हीं दारोगा उदय प्रताप स्वयं चलकर आता है झींगना के पास, झींगना को हिदायत देते हुए कहता है -
“सुनो ! तुम्हारा एफ आई आर वापस ले लिया गया है, लेकिन तुम्हें अभी और इसी बक्त गांव छोड़ना पड़ेगा, नेता जी का हुकुम हैं ।”
“जी साहब !” झींगना ने धीरे से कहा ।
“और सुनो, कफर््यु में अभी ढ़ील है, तुरंत मुजफ्फरपुर के लिए बस पकड़ लो, फिर वहां से जहां जाना हो चले जाना, मगर ध्यान रखना बिहार से बाहर चले जाना नी ंतो फिर पकड़े जाओगे, ठीक ?”
“जईसा कहें साहेब !” शांत स्वर में झींगना ने उत्तर दिया ।
आज पहलीबार सुरसतिया से अलग हो रहा है झींगना । मन भारी - भारी सा है । सुरसतिया बस खामोश, एक टक निहार रही हैं झींगना को । कुछ बोल नहीं पा रही । वियोग का गम अन्दर ही अन्दर सताये जा रहा है ।
भारी जद्दोजहद के बीच झींगना ने केवल इतना ही कहने का साहस जुटा पाया, कि -
“अपना ख्याल रखना सुरसतिया ! हम जल्दी वापस आएंगे, अपना धीरज नहीं खोना ।”
सुरसतिया को जैसे सांप सूंघ गया हो, कुछ बोल नहीं पा रही है । बस निहारती ही जा रही है झींगना का ...... ।
तभी दारोगा ने झींगना की ओर इशारा करते हुए कहा -
“चलो जल्दी करो, नही तो कफर््यू में ढ़ील खत्म हो जाएगा । बैठो गाड़ी में तुमको छोड़ देते हैं बस स्टैण्ड ।”
“जी चलिए साहेब !” झींगना ने कहा ।
जब तक उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गया वह, बस निहारती ही रही सुरसतिया । झींगना के ओझल होते ही लगी फफक्र - फफक्र कर रोने । तभी कंधे पर हाथ रखके चतुरी चाचा ने ढान्ढस बंधाया, कहा -
“चल बिटिया धर चल, जल्दी लौटेगा अपना झींगना । शायद बिधाता को यही मंजूर था ....... ।”
.......क्रमश:....९
नगर थाना के बन्दीगृह के एक कोने में बैठा सुबक रहा झींगना । समझ नहीं पा रहा वह, कि कल रात हुए उस हिंदू - मुस्लिम राइट से उसका क्या लेना - देना ? वह तो कलाकार है, लोक - गायक है, दंगाई नहीं, वह भला किसी का खून क्यों करेगा ? जहां तक दिलावर मियां का प्रश्न है, वह तो नेक बंदा था उसकी मण्डली का । दिल का दौरा पड़ा अचानक और मर गया । लोग कहते हैं मैंने गला दबा दिया । कोई अपनी मौत मरे तो खून का इल्जाम मेरे सर क्यों ? अनायास ही चीखने - चिल्लाने लगा झींगना - ”हम खून नहीं किए दरोगा जी, वह तो अपनी मौत मरा है -- !” देने लगा चिल्ला - चिल्लाकर अपनी बेगुनाही की दलीलें, मगर उसकी सुनता कौन ?
दारोगा गुर्राया और लाठी जमीन पर फटकते हुए कहा -
“अबे स्साले चुप्प ! इतना मारूंगा कि बैठे - बैठे पोटी कर दोगे --- तुम ससुर जितने सीधे दिखते हो, उतने हो नहीं -- तुम्ही ने मारा है दिलावर को गला दबाकर -- पहले तुम्हारे ऊपर रासुका लगायेगे हम, फिर दफा तीन सोै दो -- ।”
झींगना चुप हो गया, किन्तु अन्तरात्मा में आए तूफान सुनामी लहरों की मानिंद अजीबो गरीब हलचल पैदा कर रहे थे । आशा निराशा में बदल चुकी थी । जार - जार रोते हुए झींेगना के होंठो से फूट रहे शब्द वेदना के -
“कइसन हए करेज तोर,
आंखि नही तनिका लोर,
दरदिया से रह - रह टूटे
बदनवा हे दरोगा जी !
खुल - खुल के गावत रहली,
नेहिया लुटावत रहली,
मन के ई सोन - चिरेैया -
मन के समझावत रहली
कि एक दिन साकार होई
सपनवा है दरोगा जी !”
इल्जाम से बरी होने के सारे प्रयास निरर्थक साबित हो रहे हैं झींगना के लिए । यातनाओं के समंदर में गोते लगा रहा है वह और सोच रहा है कि कैसे तपेदिक हो गया है सच को । लकवा मार गया है बिचारों को कोई नहीं सुन रहा उसकी फरियाद । उसे अपराधी समझकर हर कोई धृणा का भाव रखने लगा है । बिल्कुल अकेला पड़ गया है वह इस जंग में । सर्द मौसम में भी तर - बतर है वह पसीने से । उसके माथे पर परेशानी की स्पष्ट लकीरें दिखाई दे रही हैं।
बेहद आत्म मंथन के दौर से गुजरते हुए झींगना के सामने अचानक उम्मीद की एक किरन बनकर प्रकट प्रकट हुई सुरसतिया ।
हवलदार ने रास्ता रोकते हुए पूछा -”ऐ-- ऐ -- कौन है तू ! कहां घुसी चली आ रही है ?”
“खाना लायी हूं झींगना के लिए ।” सुरसतिया ने कहा ।
“तू कौन लगती है री उसकी ?” हवलदार ने पूछा ।
“मेहरारू !” बड़ी मासूमियत से उत्तर दी सुरसतिया ने ।
“बड़ी सुघड़ है री तू !”
हवलदार ने मुस्कुराते हुए धीरे से कहा । सुरसतिया सकपकायी, सिमट गयी अपने - आप में, धीरे से बोली -
“का मतलब हवलदार साहेब ?”
“हमरे कहे का मतलब ई है कि बड़ा खुशनसीब है झींगना, जो तोहरी जैसी मेहरारू मिली है री -- !” बात बदलते हुए हवलदार ने कहा । सुरसतिया अपना तेवर बदले और कुछ कहे इससे पहले दारोगा उदय प्रताप सिंह का आगमन हुआ । दारोगा ने हवलदार से पूछा -
”ई कौन हे रे ! कहां से पकड़ लाया ?”
“साहब जी ! झींगना की मेहरारू है, खाना लायी है अपने मरद के लिए ।” हवलदार ने कहा ।
दारोगा उदय प्रताप सुरसतिया की ओर सुखातिब हुआ और आंखें दिखाते हुए कहा -
“ठीक ..... है ..... ठीक है, खिलादे उसे ...फिर तो जेल की ही रोटी खानी है आज के बाद ..... ।”
जेल की बात सुनकर सुरसतिया की आंखों से बरबस आंसू छलक पड़े, मानो दुःख का पहाड़ टूट पड़ा हो । माथा नीची किए भारी मन मे एक - एक कदम बढ़ाती हुई झींगना के पास पहुंची और खाना परोसती हुई सिसकने लगी । झींगना ने ढ़ांढ़स बंधाया और कहा -
“काहे रोती है री पगली ! हमें कुछ नहीं होगा .... . ।”
“भगवान करे कुछ न हो, हमें तो डर लग रहा है । ”
“हम मर्डर थोड़े न किए हएं जो हमको सजा होगी ।”
“लकिन हमारी सुनेगा कवन ?”
“जज साहेब सुनेंगे ।”
“वह भी बिक गये तब ?”
“तब जो होगा देखा जाएगा।”
“नहीं, नहीं, ऐसा नहीं कहते, शुभ - शुभ बोलिए जी !”
“गला बझ रहा हए, जरा पानी देओ ।”
“हई लेओ ।”
सुरसतिया पानी का ग्लास बढ़ाती हुई साड़ी के पल्लू से बार - बार आंसू पोंछ रही है । झींगना को काफी भूख लगी थी सो वह जल्दी - जल्दी खाना खाये जा रहा है । सिसकियां लेती सुरसतिया पुनः बोली -
“काल्ह नेता जी अपने घर आये थे ।”
“तोहरे बचावे खातिर ...... ।”
“हमको बचाने के लिए ! वह तो दर कमीना है । जात - पात - धरम के नाम पर उकसाता रहता हए गांव वालों को ....... हमको तो महसूस हो रहा हए कि दंगा कराने में ऊहें ससुरा का हाथ हए ...... जानती हो सुरसतिया ! ऊ आदमी़ की खाल में मेंड़िया हए ।”
सुरसतिया बीच में ही टोकती हुई बोली - “हमरी बतिया तो सुन लेओ ........।”
“हां, हां बताओ का कह रही हो ?” झींगना बोला । सुरसतिया टिफिन का बर्तन सहेजती हुई बोली - “नेता जी कह रहे थे कि कुछ नहीं होगा झींगना को, हम बचा लेंगे, लेकिन एक शरत हए ...... ।”
“कइसन शरत ?” झींगना ने टोकते हुए कहा ।
“शरत ई हए कि झींगना को कुछ दिन के लिए गांव छोड़ना पड़ेगा.... ।”
गांव छोड़ने की बात सुनते ही आग बबूला हो गया झींगना, लगा चिल्लाने - ”नहीं मानते हम उसकी शरत, हां !”
“धीरे - धीरे बोलो, थाना हए घर नहीं ।” समझाती हुई बोली सुरसतिया ।
झींगना ने कहा - “ठीक हए सुनाओ , मगर हमारी बात सुनो! हमके फंसाबे में ऊ नेतवा के बड़हन भूमिका हए सुरसतिया । ऊ दिन याद करो जब हम पंचाईत में उठाये रहे नेतवा के खिलाफ आवाज कि लखनदेई नदी पर पुल बनाबे में ससुर कईसे डकार गये सरकारी पईसा, बहुत हंगामा हुआ था उसदिन हमरे इस्टेट मेंट पर । ताक में था ससुर बहुत दिनों से, सो फंसा दिया हमको हमरे ऊपर झूठा मुकदमा लादकर, आउर अब कहता हए गांव छोड़ दो । बहुत धूर्त हए नेतावा, ऊ तो चाह ही रहा हए कि उसके रास्ते का कांटा निकल जाए ..... हम नहीं मानेंगे उसकी शरत ........ ।”
अनायास ही आंखें भर आयीं सुरसतिया की, सुबकती हुई बोली -
“हम बचन देई दिये हएं, तोहके हमरी कसम ना नाही कहो तो अच्छा होगा । उम्रकैद आउर फांसी से तो अच्छा हए न कुछ दिन के लिए गांव छोड़ देना । फोन आ ही रहा होगा नेता जी का ...... ।”
झींगना की आंखों से टप - टप गिरने लगे आंसू, वह अपनी व्यथा को नियंत्रित नहीं रख पाया और बोला -
“जल्दवाजी में ई कइसन शरत मान ली हो सुरसतिया । हमें मुकावला करना चाहिए था, लड़ना चाहिए था अन्याय के खिलाफ आखिरी दम तक । सांच को आंच कईसा ?”
हाथ बढ़ाकर झींगना का मुंह बन्द करती हुई बोली सुरसतिया - “चुप रहो जी ! कभी सोचे हएं आप कि हमरे मुन्ना जे पेट में हए जब जनमेगा तो लोग चिढ़ाएंगे दंगाई का बेटा कहकर कइसे ? हमरे खातिर ना सही ई मुन्ना का ख्याल करो कम से कम ........।”
झीगंना भावुक हो गया सुरसतिया की बात सुनकर । उसके कंधे पर सिर टिकाकर फफक पड़ा और सिसकते हुए बोला -
“जइसन तोहार इच्छा ।”
यह सुनकर सुरसतिया के चहरे पर खुशाी की एक हल्की सी लालिमा दौड़ गयी । म नही मन मुस्कुराई । सुखद एहसास हुआ एक बारगी । बार - बार तिरछी निगाहें डालकर फोन की ओर देखती और धंटी बनजे का इंतजार करती । झींगना से बातें करती हुई बीच - बीच में यकवयक अगुता के बुदबुदाती -
“ई मुआ, फोन काहे नाही बजत हए ?”
फिर उसे कुछ याद आयी, उसने झींगना से कहा - “सुनो जी ! ऊ सदर अस्पताल के सर्जन साहेब नही हएं, जे एक महीना पहिले ट्रांसफर होके हाजीपुर से आए हएं ........ ।”
“कवन, चनरिका डॉक्टर ?”
“हां, हां ऊहे ।”
“का कह रहे थे ?”
“कह रहे थे, कि भींगना से कहना ऊ गोरखपुर चला जाए हमरी बहिन के पास, कहीं हजार - पांच सौ की नौकरी दिलवा देगी या अपने पास ही रख लेगी अपने क्लीनिक में ।”
“आउर का कह रहे थे डॉक्टर साहेब ?”
“कह रहे थे, कि जइसे ही मामला रफा - दफा होगा, हम झींगना को खबर कर देंगे, ऊ लौट आएगा गांव ।”
“कवनो पता - ठिकाना ?”
“हां, हां, ई पुर्जा में लिखकर दिए हएं, रख लेओ जेबी में ठीक से--।”
“हां दो, परदेस में काम आवेगा ।”
यकवयक फोन की धंटी बजी, रिसीवर उठाते ही दारोगा उदय प्रताप की आवाज कुंद पड़ गयी ।
“जय हिंद साहेब !”
“ठीक साहेब !”
“जैसा आप कहें साहेब !”
“आपका हुकुम सर आंखों पर साहेब !”
“नहीं, नहीं, कोई परेशानी नहीं साहेब !”
“ठीक साहेब !”
“हां, समझ गये साहेब !”
“अब उसको बुझाये तब न ?”
“हम भी समझाते हएं साहेब !”
“का कहें, उसकी मेहरारू से बात हो गयी है का ?”
“तब त मामला फिट समझिए साहेब !”
“बहुत देर से समझा रही है अपने मरद को साहेब !”
“एक दम शक नहीं होगा साहेब !”
“आप इत्मिनान रहिए साहेब !”
“ठीक साहेब !”
“जय हिंद साहेब !”
फोन रखते हीं दारोगा उदय प्रताप स्वयं चलकर आता है झींगना के पास, झींगना को हिदायत देते हुए कहता है -
“सुनो ! तुम्हारा एफ आई आर वापस ले लिया गया है, लेकिन तुम्हें अभी और इसी बक्त गांव छोड़ना पड़ेगा, नेता जी का हुकुम हैं ।”
“जी साहब !” झींगना ने धीरे से कहा ।
“और सुनो, कफर््यु में अभी ढ़ील है, तुरंत मुजफ्फरपुर के लिए बस पकड़ लो, फिर वहां से जहां जाना हो चले जाना, मगर ध्यान रखना बिहार से बाहर चले जाना नी ंतो फिर पकड़े जाओगे, ठीक ?”
“जईसा कहें साहेब !” शांत स्वर में झींगना ने उत्तर दिया ।
आज पहलीबार सुरसतिया से अलग हो रहा है झींगना । मन भारी - भारी सा है । सुरसतिया बस खामोश, एक टक निहार रही हैं झींगना को । कुछ बोल नहीं पा रही । वियोग का गम अन्दर ही अन्दर सताये जा रहा है ।
भारी जद्दोजहद के बीच झींगना ने केवल इतना ही कहने का साहस जुटा पाया, कि -
“अपना ख्याल रखना सुरसतिया ! हम जल्दी वापस आएंगे, अपना धीरज नहीं खोना ।”
सुरसतिया को जैसे सांप सूंघ गया हो, कुछ बोल नहीं पा रही है । बस निहारती ही जा रही है झींगना का ...... ।
तभी दारोगा ने झींगना की ओर इशारा करते हुए कहा -
“चलो जल्दी करो, नही तो कफर््यू में ढ़ील खत्म हो जाएगा । बैठो गाड़ी में तुमको छोड़ देते हैं बस स्टैण्ड ।”
“जी चलिए साहेब !” झींगना ने कहा ।
जब तक उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गया वह, बस निहारती ही रही सुरसतिया । झींगना के ओझल होते ही लगी फफक्र - फफक्र कर रोने । तभी कंधे पर हाथ रखके चतुरी चाचा ने ढान्ढस बंधाया, कहा -
“चल बिटिया धर चल, जल्दी लौटेगा अपना झींगना । शायद बिधाता को यही मंजूर था ....... ।”
.......क्रमश:....९
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