(नौ)
वैशाली एक्सप्रेस के आरक्षण डिब्बे में शौचालय के आस - पास मुंह लटकाये बैठा है झींगना । उसके मन में कुछ खदबदा रहा है । वह अथाह सोच की गहराईयों में डूबा है कि कैसे यकबयक बदल ली है करबट उसकी जिन्दगी ने । जब होश संभाला था वह समाज की पिछली पंक्ति में अपने आप को पाया था । हिम्मत की और संजोये सपने कामयाबी के । बुना सपनों का ताना - बाना । तब उसे नहीं मालूम था कि अमीरी - गरीबी और जात - पात की खुंदक समेट लेगी उसे एक दिन अपने आगोश में ।
जैसे सबके भीतर होती है, उसमें भी पल रही थी नये तरीके से जीने और अपनी सामाजिक - सांस्कृतिक विरासत को बचाने की हूक । इस हूक के पीछे -पीछे फिक्र भी साथ चल रही थी फिक्र धर की । फिक्र परिवार की । फिक गांव की । फिक्र बिरादरी की । हूक और फिक के इस जद्दोजहद में उम्मीद की कई रश्मियां भी थी जो कभी दिखतीं तो कभी ओझल हो जातीं । उसके सपनें और सामाजिक सरोकार की प्रतिबद्धता चुभने लगे थे धरिछन पाण्डे़ की आंखों मे। उसकी हूक से होने लगा था समाज के स्वयं भू मठाधीशों को अपने अस्तित्व का खतरा और उसकी फिक्र से उड़ने लगे थे होश ऊंची बिरादरी वालों के । सभी ने मिलकर बनाया एक चक्रव्यूह । ख्वाहिश थी उसमें उलझकर दम तोड़ दे झींगना । सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे । अन्ततः वही हुआ जो उनकी चाहतों में शामिल था । झींगना की जिन्दगी में आया एक अंधा मोड़ जिसने बदल दिया अचानक उसकी फितरत की राह । तार - तार हो गये उसके सपनें । ऊमंजिल से पहले ही दम तोड़ दिया उसकी हूक और फिक्र नं अब क्या करेगा वह ? यह सोचकर बेचैन है झींगना । भीतर के इस ऊहापोह में उसे पता ही नहीं चला कि कब गुजर गयी उसकी ट्रेन गोरखपुर स्टेशन से ।
जैसे - जैसे ट्रेन अपनी रफ्तार पकड़ रही है, वैसे - वैसे परवान चढ़ रही है झींगना की आन्तरिक व्यथाएं । भीतर - भीतर उमड़ - धुमड़ रहा संवेदनाओं का ज्वार । वह सोच रहा, कि - कैसे बेतकल्लुफ हो गये हैं बड़े लोग ? ऊॅची बिरादरी के ये महत्वाकांक्षी लोग सदियों पुरानी हदों के केंचूल से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहे ? उनका अहं उन्हें कैसे असभ्यता की परिधि में ले जा रहा ? ध्रिछन पाण्ड़े जैसे धुटभैय्ये नेता कैसे बर्चस्व की पैराकार व्यवस्था में छोटी विरादरी के लोगों का जीना दुभर किए है ! एक हम हैं जो इसी समाज के अंग होने के बावजूद लोकलाज की चादर ओढ़े सभ्यता का ढ़ोल पीट रहे हैं और एक वो हैं जो कभी पुलिस तो कभी राजनीति की आड़ में हर वक्त अपना उल्लू सीधा करने के फिराक में रहते हैं -- किसी को बढ़ते नहीं देखना चाहते ...... अरे हम हरिजन हैं तो क्या हुआ, हैं तो इंसान ही न ......... इंसान - इंसान में भेद कैसा ! इसी लोकतंत्र में उन्हें मनमानी करने की छूट और हमें अपने ढंग से जीने का अधिकार भी नहीं क्यों ? उसने दंगे की आड़ में जुदा किया हमें हमारे गांव से -- छीन ली आजादी और बेदखल कर दिया परिवार से ..... समाज से .......... धृणा ...... धृणा ....... धृणा ....... कब होगा इस धृणा का अंत ?
एक दिन हम अवश्य लौटेंगे अपने गांव, मुहतोड़ जबाब देंगे हम उन्हें और बताएंगे कि हम जैसे छोटे लोग भी रख सकते हैं जीने का अधिकार, कर सकते हैं सपनों को साकार और धैर्य की पराकाष्ठा को पार भी । कल हमारा होगा और हम भी करेंगे शंखनाद अपनी कामयाबी का । कसम खाते हैं हम बागमती मईया की कि जबतक पूरा नहीं होगा हमारा सपना, पलायन जारी रहेगा ....... । यही झींगना की प्रतीज्ञा है और यही झींगना का प्रण ..... ।
अचानक किसी के स्पर्श से तंद्रा भंग हुई झींगना की, अर्न्तद्वन्द थमा, आंखे खुली तो सामने टी टी का कर्कश स्वर -
“ऐ, टिकट दिखाना ...... ।” टी टी ने कहा ।
“टिकट तो नही हए हमरे पास ..... ।” धीरे से बोला झींगना ।
“बड़े बेशर्म हो चार, एक तो टिकट नही ऊपर से आरक्षण कोच में चढ़ गये .......... ।”
“हमें क्या मालूम आरछन का होता है ?”
“पहली बार चढ़े हो ट्रेन में ?”
“जी टी टी साहेब !”
“टिकट क्यों नही लिया ?”
“तो दे दीजिए नऽ .... ।”
“यह बस नहीं ट्रेन है ट्रेन ...... ।”
“ऊत हमहंु जानत हईं साहेब कि ई ट्रेन हए -- ।”
“तो बिना टिकट के चढ़े क्यों ?”
“सरकार का हुकुम था जल्दी छोड़ दो गांव, सो छोड़ दिया । टिकट नहीं ले सका आउर पइसा भी तो नही रहा ।”
“समझेंगे भी कैसे ? बड़े लोग नहीं समझ पाते हम छोटों का दरद ... ।”
“खैर, यह बताओं कहां से आ रहे हो ?”
“साहेब, मुजफ्फरपुर से ...... ।”
“पेनाल्टी देनी पड़ेगी ....... ।”
“ई पेनाल्टी का होता हए साहेब ?”
“दण्ड”
“केतना ?”
“पॉच सौ रूपये ।”
“पाँच सौ ?”
“क्यों ज्यादा है ?”
“साहेब, हमारे पास तो इ सौ रूपया हए बस ।”
“कहां जाओगे ?”
“जी, मालूूम नहीं .....।”
टी टी आग बबूला हो गया झींगना का प्रत्युत्तर सुनकर, कहा - ”अभी रूकेगी ट्रेन गोण्डा स्टेशन पर -- कर दूंगा पुलिस के हवाले -- जेल में चक्की पीसना -- होश ठिकाने आ जाएंगे -- ।”
“टी टी साहेब, हमें मत करिए पुलिस के हवाले बहुत डर लगता हर हमको पुलिस से ।”
“तो फिर पेनाल्टी भरो ...... ।”
“ऊ त हम नहीं भर सकते ...... ।”
“तो फिर जेल जाने के लिए तैयार हो जाओ ।”
“जइसन आपकी इच्छा टी टी साहेब ! आपके रहमो - करम से गुजर जाएंगे पॉच - छः महीने खाते - पीते जेल में ..... ।” मायूस होते हुए झींगना ने कहा और मुंह लटका लिया ।
पास बैठी ताहिरा देख रही थी यह दृश्य । वह जहां झींगना की हाजिर-जवावी पर फिदा थी, वहीं उसकी मासुमियत और परेशानी पर भावुक भी । उससे रहा नहीं गया, दया आ गयी झींगना पर । महसूस हुआ कि शायद यह व्यक्ति अत्यन्त आहत और परिस्थितियों का दास है । उसे उसकी मदद करनी चाहिए । कुछ सोचती हुई ताहिरा ने टी टी की ओर ईशारा किया -
“सुनिए जनाब !”
“हां, हां कहिए!”
“इनका टिकट बना दीजिए और पैसे मुझसे ले लीजिए ....... ।”
“ओ के मैडम !” टी टी ने कहा ।
“कितने पैसे हुए ?” ताहिरा ने फिर पूछा ।
“कहां तक के टिकट बना दें ?” टी टी ने पलटकर पूछा ।
“फिलहाल लखनऊ के ।”
“मैडम ! पेनाल्टी के साथ चार सौ तीस रूपये ।”
ताहिरा ने पैसे देने के लिए पर्श खोले ही थे, कि उसके अब्बू ने उसका हाथ पकड़ लिया और एतराज करते हुए कहा -ताहिरा बेटा ! एक अजनबी के लिए इतने पैसे ?”
“हां अब्बू ...... ।”
“यह सब करने की क्या जरूरत बेटा ?”
“पता नहीं अब्बू, मगर ........ ।”
“मगर क्या बेटा ?”
“अब्बू पता नहीं क्यों मुझे एहसास हो रहा है कि इसकी मदद करनी चाहिए हमें ..........।”
सिकन्दर साहब अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे, कि ताहिरा ने उनके मंुह पर अपना हाथ रखती हुई बोली -
”प्लीज अब्बू ! आगे कुछ मत कहिए ....... समझेंगे हम कि मुशायरे में कुछ कम ही मिला ।”
“जैसी तेरी मर्जी ....... ।” सिकन्दर साहब ने धीरे से कहा और चादर तान कर खर्राटे लेने लगे ।
ताहिरा ने टी टी को पैसे देकर विदा किया, फिर उसने झींगना को पास बिठाया और पूछा -
”क्या नाम है जनाब आपका ?”
“झींगना !”
“कहां तक जाएंगे आप ?”
“पता नहीं !”
जबाब सुनकर हतप्रभ रह गयी ताहिरा और मुस्कुरायी । फिर बात आगे बढ़ाते हुए बोली -
“जनाब ! आप हमें अपना ही समझें, कुछ बताएं अपने बारे में, हो सकता है हम आपके काम आ जाएं --- ।”
“हम उतर विहार के एक छाटा सा गांव भवदेपुर से आते हएं मैडम !”
“मैडम नहीं ताहिरा कहें जनाब ! नाम लेने से अपनापन बढ़ता है ।”
“जी ताहिरा जी !”
“हां, यह हुई न बात ! अब बताएं अपने बारे मे....... ।”
”बड़ी लम्बी कहानी हए ताहिरा जी ! ......बस इतना समझ लीजिए कि नीच जात के हैं हम --- बड़े लोगों ने खूब सताया ......... बेघर कर दिया हमें अपने परिवार से -- गांव से -- कहीं का नहीं छोड़ा ........ न घर का, न घाट का -- कलाकार हएं न हम, बददुएं भी तो नहीं दे सकते उन्हे ........ अब तो एक हीं अपना हए, अपनी कलाकारी की धार को मांज कर कुछ बन जाएं ............... फिर लौटें अपने गांव ........ बस !”
“आप गाते भी हैं ?”
“हां, हां आल्हा, विरहा, पराती, कजरी और लोक गीत ....... मगर फिल्मी नहीं गा पाते हैं -- सांच कहते हैं ताहिरा जी !”
कुछ सुनाइये हमें भीं?
“क्या सुनायें ?”
“कुछ भी -- ।” ताहिरा ने कहा ।”
“आप भोजपुरी या बज्जिका समझती हैं ?”
“थोड़ी - थोड़ी -- अंदाज से समझ लेती हूॅ ।”
“कैसे ? आप तो लखनऊ की है,ं वहां अवधी बोली जाती है.............।”
अवधी भी तो भोेजपुरी की बहन ही है”
“शायरा हूॅ ! हर तरह की जुबान में लिखने वालों का सोहबत है जनाब !”
“तो फिर गायें ?”
“हां, हां, खुलकर गाइए !”
झींगना ने जैसे हीं अलाप लिया, कम्पार्टमेण्ट के लोग आकर्षित होते चले गये । हर कोई मंत्र मुग्ध हो गया उसकी आवाज सुनकर ।
“आएल आन्ही - पानी - झपास बाबू !
हहराएल हिया में हाहास बाबू !
ई कइसन पिरितिया के कांटा चुभल -
न टीस, न दरद क अभास बाबू !
नदिया किनारे भेटाइल रहली महुआ -
भए अमवा के मन मधुमास बाबू !
केतनो पहिनब ऽ त काया न जुडा़ई -
बन्हिया से बन्हिया लिबास बाबू !
ताहिरा भाव - विभोर हो गयी झींगना को सुनकर, अचानक खुशी से उछलती हुई बोली -
“मैं दूंगी आपको संगीत की तालीम, सिखाऊंगी गुर कामयाबी के, जिस दिन आपकी प्रतिभा को लोग पहचानेंगे, मुझे यकीन है, संुगीत की दुनिया में केबल आप ही आप होंगे.....आप तो कोहिनूर हैं कोहिनूर....... ।”
“मगर ताहिरा जी!‘‘
“मगर क्या ?”
“पहिले तो पेट की आग कैसे बुझे ई जुगत करना हमारे लिए जरूरी है ......।”
“आप हमारे साथ हमारे घर तशरीफ लाइए । इंशाअल्लाह सब ठीक हो जाएगा ........।” ताहिरा ने सांत्वना भरे शब्दों में कहा ।
“मैं समझ रहीं हूं आपकी मजबूरी आप हमारे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहते, क्या ?”
“हां, ताहिरा जी, हम खुद्दार किस्म के लोग हएं काम करके खाने में यकीन रखते हएं बैठकर नहीं .......।”
“मित्तल साहब हैं लखनऊ रेडियो स्टेशन में प्रोग्राम एक्जक्यूटिव मेरे अब्बू के दोस्त - कहंूगी उनसे आपको एडजस्ट कर दें कहीं ...... ।”
“बड़ी मेहरबानी होगी ताहिरा जी !”
“मेहरबानी की बात छोड़िए, पहले यह बताइए जनाब ! चल रहे हैं न हमारे घर ?”
“मगर ..... ।”
“अगर - मगर - किन्तु - परन्तु कुछ नही, ताहिरा ने कह दिया तो कह दया ...... ।”
झींगना मौचक्क रह गया यह सुनकर । उसने अभीतक सुन रखा था लखनवी तहजीव के बारे में, आज देख भी लिया । उसने सोचा कि शायद, लखनऊ शहर से ही लिखा हो उसे कामयाबी के सफर की शुरूआत करना । ऊपरवाले ने भेज दिया हो ताहिरा के रूप में कोई फरिश्ता, कोई रहबर उसके लिए । सो उसने सहमति में अपना सिर हिला दिया ।
उसकी सहमति का संकेत पाकर खुश हुई ताहिरा कि पहलीबार उसे भी महसूस हो रहा है, झींगना की गंबई भाषा शिल्प और लोकगीतों पर पकड़ से उसकी गजलों और नज्मों में निखार आएगा । मैं सिखंुगी झींगना की मौलिकता से और झींगना मुझसे । हिसाब बराबर । शायद, एक मासूम, दिल का सच्चा और हुनरमंद साथी मिल गया है उसे झीगंना के रूप में ।
गाड़ी बाराबंकी से आगे निकल चुकी है, ताहिरा ने अब्बू को जगाते हुए कहा -
“अब्बू ....... अब्बू ....... उठो न ऽ हमारी ट्रेन सफेदाबाद के आसपास है ।”
“ठीक है बेटा ! सामान एक तरफ कायदे से रखो और सुना वाटर पॉट के सारे पानी उड़ेल दो ....... ।”
“जी अब्बू !” ताहिरा ने कहा और वाटर पॉट के सारे पानी उड़ेलने के लिए बेसिन की ओर बढ़ी, तभी सिकन्दर साहब ने फिर कहा -
“ताहिरा बेटा !”
“जी अब्बू !”
“आके अभी इत्मीनान से बैठ जा--गाड़ी मल्हौर पहुंच रही है , फिर बादशाहनगर, फिर चारबाग, बीस---पच्चीस मिनट तो लग ही जाएंगे - ।” सिकन्दर साहब ने कहा और झपकी लेने लगे ।
तहिरा इत्मीनान हो बैठी और अब्बू को झींगना के बारे में बताते हुए अपने घर ले जाने के वास्ते रजामन्द कर ली । अब्बू की रजामंदी के बाद ताहिरा खुशी से उछल पड़ी । खिड़की के तरफ टेढ़ी पीठ टिकाती हुई वह मन ही मन गुनगुनाने लगी गजल -
“ ये हेै कैसा सफर देखिए
जुस्तजू हम सफर देखिए ।
कभी गम तो कभी दी खुशी
जिन्दगी मुख्तसर देखिए ।
रवाब उनके ही आंखो में है
जिनका दिल मुन्तजिर देखिए ।
आहटें उनकी मोहलत न दी
मैं हुई बेखबर देखिए - ।”
सिकन्दर साहब ने सोच में डूबी ताहिरा को झकझोरा - ”ताहिरा बेटा !”
“जी अब्बू !” अचानक चौकंते हुए ताहिरा ने कहा ।
”हमारी ट्रेन चारबाग पहुंचने वाली है, भीड़ ज्यादा है, चलो धीरे - धीरे बढ़ते हैं दरवाजे के पास ...... ।”
“हां अब्बू, यह ठीक रहेगा ।”
फिर ताहिरा ने झींगना की ओर इशारा करते हुए कहा - “चलिए जनाब, हम लखनऊ पहुंच गये हैं ।”
“हां, हां, चलिए !” झींगना ने हड़बड़ाकर सिकन्दर साहब के हाथ से बैग लेते हुए कहा - “सिकन्दर साहब मुस्कुराये और बैग झींगना के हवाले कर दिया । तीनों धीरे - धीरे भीड़ को चीरकर दरवाजे की ओर बढ़ने लगे ।
.......क्रमश:....१०
वैशाली एक्सप्रेस के आरक्षण डिब्बे में शौचालय के आस - पास मुंह लटकाये बैठा है झींगना । उसके मन में कुछ खदबदा रहा है । वह अथाह सोच की गहराईयों में डूबा है कि कैसे यकबयक बदल ली है करबट उसकी जिन्दगी ने । जब होश संभाला था वह समाज की पिछली पंक्ति में अपने आप को पाया था । हिम्मत की और संजोये सपने कामयाबी के । बुना सपनों का ताना - बाना । तब उसे नहीं मालूम था कि अमीरी - गरीबी और जात - पात की खुंदक समेट लेगी उसे एक दिन अपने आगोश में ।
जैसे सबके भीतर होती है, उसमें भी पल रही थी नये तरीके से जीने और अपनी सामाजिक - सांस्कृतिक विरासत को बचाने की हूक । इस हूक के पीछे -पीछे फिक्र भी साथ चल रही थी फिक्र धर की । फिक्र परिवार की । फिक गांव की । फिक्र बिरादरी की । हूक और फिक के इस जद्दोजहद में उम्मीद की कई रश्मियां भी थी जो कभी दिखतीं तो कभी ओझल हो जातीं । उसके सपनें और सामाजिक सरोकार की प्रतिबद्धता चुभने लगे थे धरिछन पाण्डे़ की आंखों मे। उसकी हूक से होने लगा था समाज के स्वयं भू मठाधीशों को अपने अस्तित्व का खतरा और उसकी फिक्र से उड़ने लगे थे होश ऊंची बिरादरी वालों के । सभी ने मिलकर बनाया एक चक्रव्यूह । ख्वाहिश थी उसमें उलझकर दम तोड़ दे झींगना । सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे । अन्ततः वही हुआ जो उनकी चाहतों में शामिल था । झींगना की जिन्दगी में आया एक अंधा मोड़ जिसने बदल दिया अचानक उसकी फितरत की राह । तार - तार हो गये उसके सपनें । ऊमंजिल से पहले ही दम तोड़ दिया उसकी हूक और फिक्र नं अब क्या करेगा वह ? यह सोचकर बेचैन है झींगना । भीतर के इस ऊहापोह में उसे पता ही नहीं चला कि कब गुजर गयी उसकी ट्रेन गोरखपुर स्टेशन से ।
जैसे - जैसे ट्रेन अपनी रफ्तार पकड़ रही है, वैसे - वैसे परवान चढ़ रही है झींगना की आन्तरिक व्यथाएं । भीतर - भीतर उमड़ - धुमड़ रहा संवेदनाओं का ज्वार । वह सोच रहा, कि - कैसे बेतकल्लुफ हो गये हैं बड़े लोग ? ऊॅची बिरादरी के ये महत्वाकांक्षी लोग सदियों पुरानी हदों के केंचूल से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहे ? उनका अहं उन्हें कैसे असभ्यता की परिधि में ले जा रहा ? ध्रिछन पाण्ड़े जैसे धुटभैय्ये नेता कैसे बर्चस्व की पैराकार व्यवस्था में छोटी विरादरी के लोगों का जीना दुभर किए है ! एक हम हैं जो इसी समाज के अंग होने के बावजूद लोकलाज की चादर ओढ़े सभ्यता का ढ़ोल पीट रहे हैं और एक वो हैं जो कभी पुलिस तो कभी राजनीति की आड़ में हर वक्त अपना उल्लू सीधा करने के फिराक में रहते हैं -- किसी को बढ़ते नहीं देखना चाहते ...... अरे हम हरिजन हैं तो क्या हुआ, हैं तो इंसान ही न ......... इंसान - इंसान में भेद कैसा ! इसी लोकतंत्र में उन्हें मनमानी करने की छूट और हमें अपने ढंग से जीने का अधिकार भी नहीं क्यों ? उसने दंगे की आड़ में जुदा किया हमें हमारे गांव से -- छीन ली आजादी और बेदखल कर दिया परिवार से ..... समाज से .......... धृणा ...... धृणा ....... धृणा ....... कब होगा इस धृणा का अंत ?
एक दिन हम अवश्य लौटेंगे अपने गांव, मुहतोड़ जबाब देंगे हम उन्हें और बताएंगे कि हम जैसे छोटे लोग भी रख सकते हैं जीने का अधिकार, कर सकते हैं सपनों को साकार और धैर्य की पराकाष्ठा को पार भी । कल हमारा होगा और हम भी करेंगे शंखनाद अपनी कामयाबी का । कसम खाते हैं हम बागमती मईया की कि जबतक पूरा नहीं होगा हमारा सपना, पलायन जारी रहेगा ....... । यही झींगना की प्रतीज्ञा है और यही झींगना का प्रण ..... ।
अचानक किसी के स्पर्श से तंद्रा भंग हुई झींगना की, अर्न्तद्वन्द थमा, आंखे खुली तो सामने टी टी का कर्कश स्वर -
“ऐ, टिकट दिखाना ...... ।” टी टी ने कहा ।
“टिकट तो नही हए हमरे पास ..... ।” धीरे से बोला झींगना ।
“बड़े बेशर्म हो चार, एक तो टिकट नही ऊपर से आरक्षण कोच में चढ़ गये .......... ।”
“हमें क्या मालूम आरछन का होता है ?”
“पहली बार चढ़े हो ट्रेन में ?”
“जी टी टी साहेब !”
“टिकट क्यों नही लिया ?”
“तो दे दीजिए नऽ .... ।”
“यह बस नहीं ट्रेन है ट्रेन ...... ।”
“ऊत हमहंु जानत हईं साहेब कि ई ट्रेन हए -- ।”
“तो बिना टिकट के चढ़े क्यों ?”
“सरकार का हुकुम था जल्दी छोड़ दो गांव, सो छोड़ दिया । टिकट नहीं ले सका आउर पइसा भी तो नही रहा ।”
“समझेंगे भी कैसे ? बड़े लोग नहीं समझ पाते हम छोटों का दरद ... ।”
“खैर, यह बताओं कहां से आ रहे हो ?”
“साहेब, मुजफ्फरपुर से ...... ।”
“पेनाल्टी देनी पड़ेगी ....... ।”
“ई पेनाल्टी का होता हए साहेब ?”
“दण्ड”
“केतना ?”
“पॉच सौ रूपये ।”
“पाँच सौ ?”
“क्यों ज्यादा है ?”
“साहेब, हमारे पास तो इ सौ रूपया हए बस ।”
“कहां जाओगे ?”
“जी, मालूूम नहीं .....।”
टी टी आग बबूला हो गया झींगना का प्रत्युत्तर सुनकर, कहा - ”अभी रूकेगी ट्रेन गोण्डा स्टेशन पर -- कर दूंगा पुलिस के हवाले -- जेल में चक्की पीसना -- होश ठिकाने आ जाएंगे -- ।”
“टी टी साहेब, हमें मत करिए पुलिस के हवाले बहुत डर लगता हर हमको पुलिस से ।”
“तो फिर पेनाल्टी भरो ...... ।”
“ऊ त हम नहीं भर सकते ...... ।”
“तो फिर जेल जाने के लिए तैयार हो जाओ ।”
“जइसन आपकी इच्छा टी टी साहेब ! आपके रहमो - करम से गुजर जाएंगे पॉच - छः महीने खाते - पीते जेल में ..... ।” मायूस होते हुए झींगना ने कहा और मुंह लटका लिया ।
पास बैठी ताहिरा देख रही थी यह दृश्य । वह जहां झींगना की हाजिर-जवावी पर फिदा थी, वहीं उसकी मासुमियत और परेशानी पर भावुक भी । उससे रहा नहीं गया, दया आ गयी झींगना पर । महसूस हुआ कि शायद यह व्यक्ति अत्यन्त आहत और परिस्थितियों का दास है । उसे उसकी मदद करनी चाहिए । कुछ सोचती हुई ताहिरा ने टी टी की ओर ईशारा किया -
“सुनिए जनाब !”
“हां, हां कहिए!”
“इनका टिकट बना दीजिए और पैसे मुझसे ले लीजिए ....... ।”
“ओ के मैडम !” टी टी ने कहा ।
“कितने पैसे हुए ?” ताहिरा ने फिर पूछा ।
“कहां तक के टिकट बना दें ?” टी टी ने पलटकर पूछा ।
“फिलहाल लखनऊ के ।”
“मैडम ! पेनाल्टी के साथ चार सौ तीस रूपये ।”
ताहिरा ने पैसे देने के लिए पर्श खोले ही थे, कि उसके अब्बू ने उसका हाथ पकड़ लिया और एतराज करते हुए कहा -ताहिरा बेटा ! एक अजनबी के लिए इतने पैसे ?”
“हां अब्बू ...... ।”
“यह सब करने की क्या जरूरत बेटा ?”
“पता नहीं अब्बू, मगर ........ ।”
“मगर क्या बेटा ?”
“अब्बू पता नहीं क्यों मुझे एहसास हो रहा है कि इसकी मदद करनी चाहिए हमें ..........।”
सिकन्दर साहब अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे, कि ताहिरा ने उनके मंुह पर अपना हाथ रखती हुई बोली -
”प्लीज अब्बू ! आगे कुछ मत कहिए ....... समझेंगे हम कि मुशायरे में कुछ कम ही मिला ।”
“जैसी तेरी मर्जी ....... ।” सिकन्दर साहब ने धीरे से कहा और चादर तान कर खर्राटे लेने लगे ।
ताहिरा ने टी टी को पैसे देकर विदा किया, फिर उसने झींगना को पास बिठाया और पूछा -
”क्या नाम है जनाब आपका ?”
“झींगना !”
“कहां तक जाएंगे आप ?”
“पता नहीं !”
जबाब सुनकर हतप्रभ रह गयी ताहिरा और मुस्कुरायी । फिर बात आगे बढ़ाते हुए बोली -
“जनाब ! आप हमें अपना ही समझें, कुछ बताएं अपने बारे में, हो सकता है हम आपके काम आ जाएं --- ।”
“हम उतर विहार के एक छाटा सा गांव भवदेपुर से आते हएं मैडम !”
“मैडम नहीं ताहिरा कहें जनाब ! नाम लेने से अपनापन बढ़ता है ।”
“जी ताहिरा जी !”
“हां, यह हुई न बात ! अब बताएं अपने बारे मे....... ।”
”बड़ी लम्बी कहानी हए ताहिरा जी ! ......बस इतना समझ लीजिए कि नीच जात के हैं हम --- बड़े लोगों ने खूब सताया ......... बेघर कर दिया हमें अपने परिवार से -- गांव से -- कहीं का नहीं छोड़ा ........ न घर का, न घाट का -- कलाकार हएं न हम, बददुएं भी तो नहीं दे सकते उन्हे ........ अब तो एक हीं अपना हए, अपनी कलाकारी की धार को मांज कर कुछ बन जाएं ............... फिर लौटें अपने गांव ........ बस !”
“आप गाते भी हैं ?”
“हां, हां आल्हा, विरहा, पराती, कजरी और लोक गीत ....... मगर फिल्मी नहीं गा पाते हैं -- सांच कहते हैं ताहिरा जी !”
कुछ सुनाइये हमें भीं?
“क्या सुनायें ?”
“कुछ भी -- ।” ताहिरा ने कहा ।”
“आप भोजपुरी या बज्जिका समझती हैं ?”
“थोड़ी - थोड़ी -- अंदाज से समझ लेती हूॅ ।”
“कैसे ? आप तो लखनऊ की है,ं वहां अवधी बोली जाती है.............।”
अवधी भी तो भोेजपुरी की बहन ही है”
“शायरा हूॅ ! हर तरह की जुबान में लिखने वालों का सोहबत है जनाब !”
“तो फिर गायें ?”
“हां, हां, खुलकर गाइए !”
झींगना ने जैसे हीं अलाप लिया, कम्पार्टमेण्ट के लोग आकर्षित होते चले गये । हर कोई मंत्र मुग्ध हो गया उसकी आवाज सुनकर ।
“आएल आन्ही - पानी - झपास बाबू !
हहराएल हिया में हाहास बाबू !
ई कइसन पिरितिया के कांटा चुभल -
न टीस, न दरद क अभास बाबू !
नदिया किनारे भेटाइल रहली महुआ -
भए अमवा के मन मधुमास बाबू !
केतनो पहिनब ऽ त काया न जुडा़ई -
बन्हिया से बन्हिया लिबास बाबू !
ताहिरा भाव - विभोर हो गयी झींगना को सुनकर, अचानक खुशी से उछलती हुई बोली -
“मैं दूंगी आपको संगीत की तालीम, सिखाऊंगी गुर कामयाबी के, जिस दिन आपकी प्रतिभा को लोग पहचानेंगे, मुझे यकीन है, संुगीत की दुनिया में केबल आप ही आप होंगे.....आप तो कोहिनूर हैं कोहिनूर....... ।”
“मगर ताहिरा जी!‘‘
“मगर क्या ?”
“पहिले तो पेट की आग कैसे बुझे ई जुगत करना हमारे लिए जरूरी है ......।”
“आप हमारे साथ हमारे घर तशरीफ लाइए । इंशाअल्लाह सब ठीक हो जाएगा ........।” ताहिरा ने सांत्वना भरे शब्दों में कहा ।
“मैं समझ रहीं हूं आपकी मजबूरी आप हमारे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहते, क्या ?”
“हां, ताहिरा जी, हम खुद्दार किस्म के लोग हएं काम करके खाने में यकीन रखते हएं बैठकर नहीं .......।”
“मित्तल साहब हैं लखनऊ रेडियो स्टेशन में प्रोग्राम एक्जक्यूटिव मेरे अब्बू के दोस्त - कहंूगी उनसे आपको एडजस्ट कर दें कहीं ...... ।”
“बड़ी मेहरबानी होगी ताहिरा जी !”
“मेहरबानी की बात छोड़िए, पहले यह बताइए जनाब ! चल रहे हैं न हमारे घर ?”
“मगर ..... ।”
“अगर - मगर - किन्तु - परन्तु कुछ नही, ताहिरा ने कह दिया तो कह दया ...... ।”
झींगना मौचक्क रह गया यह सुनकर । उसने अभीतक सुन रखा था लखनवी तहजीव के बारे में, आज देख भी लिया । उसने सोचा कि शायद, लखनऊ शहर से ही लिखा हो उसे कामयाबी के सफर की शुरूआत करना । ऊपरवाले ने भेज दिया हो ताहिरा के रूप में कोई फरिश्ता, कोई रहबर उसके लिए । सो उसने सहमति में अपना सिर हिला दिया ।
उसकी सहमति का संकेत पाकर खुश हुई ताहिरा कि पहलीबार उसे भी महसूस हो रहा है, झींगना की गंबई भाषा शिल्प और लोकगीतों पर पकड़ से उसकी गजलों और नज्मों में निखार आएगा । मैं सिखंुगी झींगना की मौलिकता से और झींगना मुझसे । हिसाब बराबर । शायद, एक मासूम, दिल का सच्चा और हुनरमंद साथी मिल गया है उसे झीगंना के रूप में ।
गाड़ी बाराबंकी से आगे निकल चुकी है, ताहिरा ने अब्बू को जगाते हुए कहा -
“अब्बू ....... अब्बू ....... उठो न ऽ हमारी ट्रेन सफेदाबाद के आसपास है ।”
“ठीक है बेटा ! सामान एक तरफ कायदे से रखो और सुना वाटर पॉट के सारे पानी उड़ेल दो ....... ।”
“जी अब्बू !” ताहिरा ने कहा और वाटर पॉट के सारे पानी उड़ेलने के लिए बेसिन की ओर बढ़ी, तभी सिकन्दर साहब ने फिर कहा -
“ताहिरा बेटा !”
“जी अब्बू !”
“आके अभी इत्मीनान से बैठ जा--गाड़ी मल्हौर पहुंच रही है , फिर बादशाहनगर, फिर चारबाग, बीस---पच्चीस मिनट तो लग ही जाएंगे - ।” सिकन्दर साहब ने कहा और झपकी लेने लगे ।
तहिरा इत्मीनान हो बैठी और अब्बू को झींगना के बारे में बताते हुए अपने घर ले जाने के वास्ते रजामन्द कर ली । अब्बू की रजामंदी के बाद ताहिरा खुशी से उछल पड़ी । खिड़की के तरफ टेढ़ी पीठ टिकाती हुई वह मन ही मन गुनगुनाने लगी गजल -
“ ये हेै कैसा सफर देखिए
जुस्तजू हम सफर देखिए ।
कभी गम तो कभी दी खुशी
जिन्दगी मुख्तसर देखिए ।
रवाब उनके ही आंखो में है
जिनका दिल मुन्तजिर देखिए ।
आहटें उनकी मोहलत न दी
मैं हुई बेखबर देखिए - ।”
सिकन्दर साहब ने सोच में डूबी ताहिरा को झकझोरा - ”ताहिरा बेटा !”
“जी अब्बू !” अचानक चौकंते हुए ताहिरा ने कहा ।
”हमारी ट्रेन चारबाग पहुंचने वाली है, भीड़ ज्यादा है, चलो धीरे - धीरे बढ़ते हैं दरवाजे के पास ...... ।”
“हां अब्बू, यह ठीक रहेगा ।”
फिर ताहिरा ने झींगना की ओर इशारा करते हुए कहा - “चलिए जनाब, हम लखनऊ पहुंच गये हैं ।”
“हां, हां, चलिए !” झींगना ने हड़बड़ाकर सिकन्दर साहब के हाथ से बैग लेते हुए कहा - “सिकन्दर साहब मुस्कुराये और बैग झींगना के हवाले कर दिया । तीनों धीरे - धीरे भीड़ को चीरकर दरवाजे की ओर बढ़ने लगे ।
.......क्रमश:....१०
बहुत बढ़िया, बधाईयाँ !
जवाब देंहटाएंलाजवाब अभिव्यक्ति !
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