(दस)

पुराना लखनऊ का नक्खास मोहल्ला । बेहद शांत और तहजीब से लबरेज । गंगा - जमुनी संस्कृति का जीबंत गवाह । गारे और चूने की पुरानी इमारतें, लखनबी शानो - शौकत की याद ताजा कराती गौरव शाली अतीत की जीती - जागती तसबीर । संगमरमरी दीवार, नक्काशीदार दरवाजे, संकरी और धुमावदार गलियां नजाकत और नफासत का एहसास कराती हुई । सायं - सांय करती हवाओं में धुली फिश फ्राई और चिकन करी की महक के आभास से ठिठकते गलियों - चौबारों से गुजरते हुए राहगीरों के कदम । कुछ तो है इस शहर में खास जो खोलती हैं परत-दर-परत शाम - ए- अवध का राज -- !

ताहिरा लखनऊ के इस खास मुहल्ले के एक खास परिवार की शख्ब्यित है, स्नेहिल और संवेदनशील । बहुचर्चित शायरा और शास्त्रीय गायिका के रूप मे प्रतिष्ठा की ऊंचाइया प्राप्त । साथ ही मानवीय मूल्यों के प्रति सतत् जागरूक महिला के रूप मे पहचान भी ।

ताहिरा के वालिद जनाब सिकन्दर अली का अमीनाबाद में चिकेन - कढ़ाई का कारोबार है । राजनीति में ऊंची पहंुच और स्थानीय स्तर पर कम्युनिस्ट की राजनीति करते हैं, वह भी बिना भय, भ्रम और भ्रांति के ।

ताहिरा के दो भाई हैं - अदनान और अरमान । अदनान अपने अब्बू के कारोबार में हाथ बटाता है, जबकि अरमान आर्मी में कर्नल है । ताहिरा घर में सबसे छोटी और सबकी लाडली है । उसे उर्दू के साथ - साथ हिन्दी, संस्कृत की भी मुकम्मल जानकारी है ।

ताहिरा की अम्मी हिन्दू थी, जो बाराणसी के एक ब्राह्मण परिवार से थी। छात्र - जीवन में ही उन्हे प्रेम होगया था सिकन्दर से । परिवार के पुरजोर विरोध और हमेशा के लिए रिश्ता तोड़ लेने के बाबजूद उसकी अम्मी सिकन्दर साहब से शादी रचाना मुनासिब समझी । दोनों बहुत प्रेम करते थे एक-दूसरे को, दो बदन एक जान की तरह । ताहिरा तब तेरह साल की थी जब दुनिया से चल बसी उसकी अम्मी । कैंसर हो गया था उन्हंे, लाख प्रयासों के बाबजूद नहीं बची उसकी अम्मी ।

ताहिरा की अम्मी संस्कारी और धर्मनिष्ठ महिला थी । सुबह - शाम भगवान शिव की आराधना करती थी । ताहिरा जब याद करती है अपनी अम्मी को तो रोमांचित हो उठती है, कि कैसे उसकी अम्मी के होठों से फूटते थे संस्कृत के श्लोक-”परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीड़नम् --!” फिर हिन्दी में समझाती - ”बेटा । वह कार्य जिससे दूसरों का भला हो नैतिक और वह कार्य जिससे दूसरों को पीड़ा पहुंचे अनैतिक होता है ।” फिर कहती - “अतिथि देवो भव -- !” अर्थात घर आए मेहमान देवता होते हैं । घर में यदि कोई अतिथि आया हुआ हो, तो अमृत भी अकेले नहीं पीना चाहिए । क्योंकि जिस घर में अतिथि का सत्कार होता, वह घर - घर नही तीर्थ है । उस घर की चौखट को छूने मात्र से तीर्थ - दर्शन का फल मिलता है ।” कुछ देर सोचने के बाद फिर कहती - “जो व्यक्ति अतिथि को खिलाकर खुद खाता है, वह कभी भूखा नहीं सोता तब तक उपदेश परक बातें करती रहती, जब तक मैं सो नहीं जाती ।

ताहिरा में उसके अब्बू का आदर्श और अम्मी का संस्कार घुला - मिला है । एक साथ दो धर्मों की विचार धारा को अपने भीतर समाहित पाकर धन्य महसूस करती है अपने आप को । किसी की मदद करने में उसे आत्मिक खुशी मिलती है । अब्बू ने दी है उसे उर्दू और फारसी की तालीम और अम्मी ने हिन्दी और संस्कृत का ज्ञान ।

ताहिरा को काफी संतोष होता है, जब वह महसूस करती है खुद को गंगा - जमुनी संस्कृति का एक हिस्सा । अब्बू की खास हिदायत रहती है उसके लिए कि “ताहिरा बेटा ! खुद से खुद को जुदा कर देना मगर नेकदिली को नही । यह नेक नियति सारी उम्र के रोजे - नमाज और जाकात से ज्यादा अहमियत रखती है । जब एक इंसान अपनी नेकदिली की रोशनी से दुनिया को रोशन करने की पाक कोशिश करता है, जन्नत की हूरें उनकी बालाएं लेती हैं जब वह खुदा के पास जाता है । यहां तक कि फरिश्ते भी उसके कदमों की खाक अपने माथे पर मलकर फ़क्र महसूस करते हैं । खुदा उसकी पेशानी पर बोशे देता है ।”


ताहिरा की दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू हो जाती है । हर सुबह एक खुशनुमा सुबह दिखाने के एवज में वह सबसे पहले शुक्रिया अदा करती है अपने खुदा का । फिर माता सरस्वती का स्मरण कर बिना दूध वाली एक कप चाय पीकर तानपूरे पर रियाज शुरू कर देती है । रियाज के बाद कुरान पढ़ती है, कभी रामयण तो कभी गीता भी । फिर नाश्ता और उसके बाद पूरा दिन समर्पित साहित्य और संगीत की साधना के लिए । कभी - कभार वह ’प्रगतिशील लेखक संघ’ के दफ्तर में कुछ पल व्यतीत करती । लेखकों से रूबरू होती, फिर कुछ घंटो के आराम के बाद शाम के बक्त कम से कम दो धंटे पुस्तकालय में किताबों के बीच ।

झींगना अजनबी जगह में कुछ असहज सा महसूस कर रहा है । गांव से इत्र एक बड़े शहर की बिल्कुल बदली हुई तसबीर उसके सामने है । वह कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे लिए एक अजनबी के मन में कभी उमड़ेगा प्यार और अपनापन । उसे सबकुछ दिवास्वप्न सा लग रहा हैं । आश्चर्य और असमंजस भरी निगाहों से घ्ूार रहा है वह घरों, दीवारों और दरवाजों को ।

ताहिरा को एहसास हुआ झींगना की असहजता का, बोली -
“शायद, आपके भीतर कुछ चल रहा है जनाब !”

“हां, कुछ सोच रहे थे हम -- ”

“क्या सोच रहे थे --- ”

“यही, कि --- ”

“मैं बताऊं, आप सोच रहे थे जनाब, कि एक अजनबी के लिए मेरे मन में इतना प्यार क्यों । यही सोच रहे थे न आप ?”
“हां -- हां --- यहि -- सोच -- रहा -- पर -- ?”

झींगना ने हकलाते हुए कहा । सोफे पर असहज बैठे झींगना को बेहद आश्चर्य हुआ कि कैसे जान गयी ताहिरा जी मेरे मन की बात ? ताहिरा पहले मुस्कुरायी फिर बोली -
“जनाब, हम साहित्यकारों में वह इल्म है, जो औरों की सोच से हमें अलग रखती है -- ”

“यह इल्म क्या है, हमें भी कुछ बताइए !” झीगंना ने कहा ।

“हां, हां क्यूं नहीं, चलिए आज से ही आप अपनी नयी जिन्दगी की शुरूआत कीजिए एक खास इल्म के साथ, कि साहित्यकारों की अपनी एक अलग बिरादरी होती है, जहां कोई भारतीय, पाकिस्तानी ईरानी, फिरंगी, अफरीकी नही। कोइ हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, ऊंचनीच, औरत, मर्द का फर्क नहीं । हर देश, मजहब जुबान, रस्मरिवाज का कोई जिक्र नहीं । जहां पहुंचे एक विरादरी, एक मजहब । एक - दूसरे की मदद की, बड़ो को इज्जत, छोटों को प्यार दिया। न छूत छात , न पर्दा, न गोरा - काला । ईद की नमाज हो या रामलीला हमारे लिए सब बराबर । किसी मजहब, धर्म, त्यौहार की तौहीन नहीं । सौ फीसदी सेक्यूलर । इस विरादरी में न कोई आरक्षण, न भेदभाव, न कुनबापरस्ती, न भ्रष्टाचार, न धोटाला । यहां सिर्फ सोच और विचार की इज्जत होती है । है न जनाब, कुछ अलग बात हमारी साहित्यिक विरादरी में ?”

झींगना ने ताहिरा की बातों से सहमत होते हुए कहा, कि - “आप बिल्कुल ठीक बोल रही हैं , ताहिरा जी ! मेरे समझ से कोई दूसरी बिरादरी नहीं, जो यह दावा ताल ठोककर कर सके -- मगर -- ”

“मगर क्या ?” ताहिरा चौंकी एकवारगी ।

“हमरा मतलब ई हए ताहिरा जी, कि केतना अच्छा होता हमारा हिन्दुस्तान भी इसी विरादरी की तरह होता -- ”

“काश ! ऐसा ही होता -- चलिए आज से आप भी इसी विरादरी का एक हिस्सा होने जा रहे हैं -- जब तक कोई काम नहीं मिल जाता, आप यहीं रहेंगे हमारे मेहमान बनकर -- जिस चीज की जरूरत हो बेझिझक मांग लीजिएगा -- ”

इसी क्रम में ताहिरा ने अपने बुजुर्ग नौकर को बुलाया और खास हिदायत देते हुए बोली -
“असद मियां ! ये हमारे खास मेहमान हैं झींगना साहब -- जबतक ये यहां हैं मेहमाननवाजी में कोई कसर नहीं रहनी चाहिए -- फिलहाल इन्हें मेहमानखाने में ले आईए -- थके होंगे आराम की जरूरत है -- ”

असद मियां ने सामान उठाते हुए कहा - ”जी बीबीजी !” ताहिरा फिर मुखातिब हुर्इ्र झींगना से, बोली - ”जनाब ! आप आराम किजिए अब -- कल सुबह आपको मिलवाऊंगी मैं अपने कुछ खास दोस्तों से, फिर चलेंगे मित्तल साहब के यहां -- ”

झींगना मुस्कुराया और असद मियां के पीछें - पीछे दबे पांव बढ़ता चला गया मेहमानखाने की तरफ । ताहिरा बस निहारती रही झींगना को । वह फिदा है अपने नये मेहमान की मासुमियत पर । उसे ऐसा महसूस हो रहा है कि शायद पूर्वजन्म का कोई रिश्ता है उसका झींगना के साथ, जो जिन्दगी के बेहद अहम मोड़ पर मिल गया है । उसे पूरा भरोसा है कि झींगना की प्रतिभा, मेहनत और लगन उसे एक दिन कामयाबी की उंचाइयों तक जरूर ले जाएगी ।

ताहिरा कुछ गुनती हुई उठी और अपने बेडरूम में बिस्तर के ऊपर जाकर धम्म से गिरी । सफर की थकान थी, डायरी के पन्ने पलटते हुए सो गयी ।

क्रमश: ११ ......

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

 
Top